26 November 2009

हाँ....मैं मुसलमान हूँ....

एक दो ग्रहों ने मुझ पर नज़रें क्या टेढ़ी की, पूरा ज़माना दुश्मन हो गया। सबसे पहला शिकार हुआ मकान मालिक का। मकान मालिक ने अचानक कह दिया- घर खाली कर दो। अपन भी ठसन बाज । निकल पड़े मकान ढूँढने । आज तक किसी की सुनी नहीं। किसी के लेन देन में नहीं पड़े , अपनी बीवी तक का तो ट्रान्सफर नहीं करा पाया, बस जीते रहे, मिशन की पत्रकारिता करते रहे, मेरे सामने आए पत्रकारों ने मकान क्या फ्लैट बुक करा लिए , शिफ्ट भी हो गए , उनका बैंक बैलेंस भी तगड़ा है। उन लोगों ने कार भी ले ली। श्रमजीवी पत्रकार संघ का महासचिव रहते हुए जिन जूनियरों के लिए अधिमान्यता की लड़ाई लड़ी, वो आज अधिमान्य पत्रकारों पर फैसला देते हैं। इसीलिये वहां भी आवेदन देने का मन् नहीं करता। सबको डांटते रहता हूँ ये वाली पत्रकारिता, ज़्यादा दिन नहीं चलेगी। कुछ सीख लो। पढो रे..अच्छा लिखो, कुछ नया करने की कोशिश तो करो। मालिकों के तलुए चाटता तो आज दैनिक भास्कर में संपादक नहीं तो स्थानीय सम्पादक तो रहता ही।
...शायद मैं मुद्दे से भटक गया। बात हो रही थी हाँ मैं मुसलमान हूँ की। ये मुद्दा खड़ा तब हुआ जब मैंने मकान देखना शुरू किया। चालीस प्रतिशत ब्रोकरों ने सीधे हाथ खड़े कर दिए कहा कि आप कहीं और कोशिश करो क्योंकि आप मुसलमान हो और लोग आप लोगों को मकान देने से मकान मालिक हिचकिचाते हैं। कुछ ने तो ये कहकर मेरी चिंता बढ़ा दी कि एक तो आप मुसलमान हो और ऊपर से पत्रकार। बहुत मुश्किल है। कुछ मुस्लिम मकान मालिकों से मिला तो कहने लगे आपकी बातचीत से लगता ही नहीं कि आप मुसलमान हो। खैर..... मुसलमान होने की पीड़ा अभी झेल ही रहा हूँ। लौटकर अपने मकान मालिक से कहा कि आपको मुझसे प्रोब्लम क्या है। उसने तत्काल कहा कि आप महीने में दस दिन लेट लेट आते हो। अब रात में वारदात हो तो क्या बाकी channel के पत्रकारों की तरह घर बैठे ही रिपोर्टिंग करूँ? खैर मैं समझ गया की अगर पत्रकारिता में समझौते किया रहता तो satta जुआ खिलने वाले भी महीने का पैसा पहुँचाने को तैयार थे। मैंने कहीं समझौता नहीं किया । जिस जगह सम्पादक की औकात सिर्फ़ विज्ञापन बटोरने वाले को ordinator की हो वहां काम मांगने भी नहीं गया। रोज़ नए channel के लोग पैसों के बल पर ब्यूरो बनने की बात करते हैं और गन्दी गन्दी गालियाँ मुझसे सुनते हैं। मैं उनसे कहता हूँ की पैसा ज़्यादा हो गया है तो चकलाखाना खोल लो, पत्रकारिता ने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा? अब कई बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया है। ब्लॉग इसीलिये लिख दिया की ये मुझे याद दिलाता रहे की मैं मुसलमान हूँ। मुसलमान होना कोई गुनाह होना थोड़े ही है। गुनाह है किसी धर्म को जाने बिना उसके मानने वालों को हिकारत भरी नज़रों से देखना। अब मेरे अन्दर जेहाद चल रही है कि करूँ तो करूँ क्या?
...अन्दर से ऐसा लग रहा है जैसे कोई फोड़ा पक गया है और अब वो मवाद भी छोड़ने लगा है। मुझे लगता है कि इंदिरा गाँधी जी की हत्या और बाबरी मस्जिद का ढांचा टूटने के बाद ये विवाद बढ़ा है। लोग अब हमको ज़ात से ही जानने और पहचानने लगे हैं। रायपुर में जब दो गुटों में विवाद हुआ था तब भी अमृत संदेश में मुझे रिपोर्टिंग से रोका गया था, लेकिन जब कई पत्रकार अपना हाथ पैर तुडवा कर वापस दफ्तर आ बाए और वापस शहर न जाने की बात की तब मुझे भेजा गया , एक बार अग्रवाल समाज की अन्ताक्षरी में योगेश अग्रवाल ने आयोजकों से कह दिया था की हमारे समाज में कोई मुसलमान क्यों संचालन करेगा। मुझसे अन्ताक्षरी का संचालन सीखने वाली वो अग्रवाल एंकर बहुत रोई थी उस दिन। दरअसल योगेश वहां हीरो बनना चाहता था और उसे अच्छे से पता था कि अगर मैंने संचालन किया तो उसकी कलई खुल जाएगी। वहां जितने भी मुसलमान संगतकार थे , वो भी इस बात से व्यथित हुए और अपना तबला , ओरगन और बाकी सामान उठाकर चलते बने। तब मैंने बड़प्पन दिखाया था और परदे के पीछे रहकर अन्ताक्षरी सफल कराई थी।
...मेरे अन्दर ये बात आज तक घुस ही नहीं पाई की की मैं किसी ऐसी कौम को बिलोंग करता हूँ जिसके लिए लोगों के मन् में इतना गुस्सा या ज़हर भरा हुआ है। मैंने अपने हिंदू दोस्तों के साथ भी कल जब इस बात को लेकर बहस की तो मेरे एक ब्राम्हण दोस्त ने मेरा हाथ पकड़ कर उठाया और बोला कि आज से भाई मेरे घर में ही रहेगा। माँ ने एक शर्त और जोड़ दी कि खाना भी तुम हमारे साथ ही खाओगे। हिंदू मुसलमान की इसी जद्दोजेहद से बचने मैंने अंतरजातीय विवाह भी किया। उसे भी कभी बंधन में नहीं बाँधा मैंने। मेरा बेटा सलाम भी करता है और नमस्ते भी। मैं उसे भी इस चुतियापे से दूर रखना चाहता हूँ। पत्नी बच्चे राजनांदगांव में ही रहते हैं और मैं हफ्ते के पाँच दिन बैचलर रहता हूँ। पर मोबाइल में दोनों को पल पल की जानकारी देनी होती है.
...दुनिया कहाँ जा रही है और हम आज भी वहीँ अटके पड़े हैं । मुझे रायपुर में मकान नहीं मिल रहा है। दिल्ली - मुंबई में मुस्लिम आतंकियों को मकान मिल जाते हैं अपनी घटनाओं को अंजाम देने के लिए। क्या चल रहा है ये सब? प्राइमरी स्कूल से सरस्वती पूजा का जिम्मा मेरा था। हाई स्कूल से रामायण करना और उसकी रिहर्सल करना मेरा दायित्व था। कॉलेज में सरस्वती वंदना मैंने शुरू करवाई। संगीत महाविद्यालय में सरस्वती की प्रतिमा बड़ी करने और रोज़ प्रार्थना करने की निरंतरता भी मैंने करवाई। डोंगरगढ़ में विराजी माँ बमलेश्वरी की आरती का नवरात्री में जीवंत प्रसारण भी मैंने शुरू किया है। उसी के कारण कई बार जब नवरात्री और रमजान साथ पड़े तो मैंने मैनेज किया। मेरे एक ब्राम्हण दोस्त मधु सुदन शर्मा ने जब छत्तीसगढ़ की पहली आध्यात्मिक पत्रिका भाग्योदय की शुरुआत की तो हमने प्रण किया था की मैं उसमे हर महीने देवी देवताओं के बारे में लिखूंगा। पिछले अंक में मैंने भैरव बाबा के बारे में लिखा तो मेरे हिंदू दोस्तों ने पहली बर भैरव बाबा के बारे में पहली बार इतने विस्तार से पढ़ा और मुझे बधाइयाँ भी मिलीं ...हिंदू- मुसलमान जैसे मुद्दों ने मेरे मन् में आज तक कोई जगह नहीं बनाई , आज जब फ़िर ये सवाल मेरे सामने मुंह बाये खड़ा है तो मुझे फ़िर ये सोचना पड़ रहा है की भारत और उसकी विशेषता भाड़ में जाए। मैंने मुस्लिम घर में जन्म लिया है तो मुझे मानना ही पड़ेगा कि हाँ मैं मुसलमान हूँ। लेकिन एक शब्द यहाँ और जोड़ना चाहूँगा कि मैं भारतीय मुसलमान हूँ जो राष्ट्र के लिए समर्पित है, मुझे पता है कि इस बार ग्रह मुझे समझा कर ही जायेंगे कि तू आदमी अच्छा है लेकिन तेरा समय ख़राब है। ab
एक बात पत्रकारिता वाली। क्या शासन या नगर निगम के पास ऐसे मकान मालिकों के details हैं जो निगम के रेंट कंट्रोल का पालन और अनुपालन करते हैं । किरायेदारों की सूचना कितने मकान मालिक पुलिस को देते हैं? जो सूचना नहीं देते उनके ख़िलाफ़ कोई बड़ी कार्यवाही आज तक हुई है अब इसी मुद्दे को लेकर कोई गरम दल खड़ा हो गया तो उसकी तो चाँदी हो जाएगी . मैं जब तक अपना मकान नहीं ले लेता तब तक इस प्रकरण में मैं तो नेतागिरी नहीं कर सकता । पर एक बात दिमाग में लगातार कौंध रही है..किरायेदार कैदी तो नहीं नहीं होता न?

21 November 2009

कहाँ हैं कलाकार और उनके संगठन.. ?

एक फ़िल्म की शूटिंग के दौरान आग लग गयी, कई कलाकार जल गए। कई अभी भी ठीक से चल नहीं पा रहे हैं। शर्मनाक बात ये की फ़िल्म निर्माता ने इलाज के लिए न खर्चा दिया न हाल चाल पूछा। एक कलाकार कल ही कालड़ा अस्पताल से घर लौटा। मेरी तो जान जल गयी। ठीक है फ़िल्म निर्माता से मेरे भी सम्बन्ध घर जैसे हैं पर फ़ोन कर के मैंने तो उन्हें झाड़ दिया। उन्होंने मुझसे ये भी कहा कि इस मामले में नेतागिरी मत करो। किसी अखबार ने कुछ नहीं छापा। एक बात जो मुझे चुभी वो ये कि तथाकथित दोनों कलाकार संघों को इस बात की जानकारी तक नहीं है। क्या सिर्फ़ लड़कियों को हीरोइन बनाने और फ़िर उनके साथ गुपचुप कर्म करने या उन्हें साथ लेकर घूमने तक ही सीमित है कलाकार संघ।
जैसे ही छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया, अजीत जोगी की कृपा से छत्तीसगढ़ फ़िल्म विकास निगम अस्तित्व में आया। उस समय बागबहरा के विधायक परेश अग्रवाल को इसका अध्यक्ष बनाया गया था। फ़िल्म विकास निगम ने छत्तीसगढ़ फ़िल्म फेस्टीवल जैसा एक बड़ा आयोजन भी किया था। उस समय की सबसे थकी हुई फ़िल्म भोला छत्तीसगढ़िया को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म घोषित किया गया था। भोला.......न चली न लोगों ने पसंद किया, लेकिन पुरस्कार उसे इसीलिये मिला क्योंकि उसके निर्माता परेश अग्रवाल थे। उनका भतीजा अंकित इस फ़िल्म का हीरो था। यानि छत्तीसगढ़ बना और कलाकारों में नेतागिरी शुरू हो गयी थी। कांग्रेस की सरकार जैसे भी गयी। भाजपा की सरकार बनी तो बृजमोहन अग्रवाल के छोटे भाई योगेश अग्रवाल ने अपने चंगु मंगू लोगों के साथ मिलकर छत्तीसगढ़ आर्टिस्ट एसोसिएशन बना डाला। फ़िर शुरू हुआ संस्कृति विभाग से लेन देन का सिलसिला । लाखों रुपये कलाकारों के नाम पर कमाए गए। कुछ काम हुए तो कुछ अभी भी पेंडिंग हैं। एडवांस तो निकल गया है। अब सरकार के पास और भी तो काम है। कौन पूछेगा पैसे का क्या हुआ।
इसी बीच मैंने पहल की और कलाकारों को एकजुट कर उन्हें समझाया कि खाली मंच और एल्बम पर एक्टिंग या नाच गाने से कुछ नही होगा। सरकार , संस्कृति विभाग और कलाकारों के संबंधों को मैंने कई बैठकों में समझाया। उन्हें संस्कृति मंत्री का घर और संस्कृति विभाग का दरवाज़ा भी दिखाया । एक और कलाकार संघ (आलाप) अस्तित्व में आ गया। मुझे संगठन चलाने का अच्छा खासा तजुर्बा था। हमने bhi prakashit किया। rajyapal से विमोचन भी करवाया। कलाकारों के हाथ में पेन भी पकड़वाया। सब कुछ ठीक चल रहा था, इसी बीच मुझसे कई बातें छुपाई जाने लगीं । मैंने हाथ खड़े कर दिए, हमेशा की तरह ... मेरे कारण अध्यक्ष लक्ष्मण चौहान ने इस्तीफे की पेशकश भी की, मैं सबको समझाता रहा। सचिव अनुमोद को भी मैंने कई बार समझाया की संगठन चलाना मज़ाक नहीं है। उसके आसपास भी खाली कलाकार बढ़ने लगे और उसको लगने लगा कि अब वह कलाकारों का नेता बन गया है।
हमने संस्कृति विभाग को साफ़ कर दिया कि अब योगेश की संस्था को कोई कार्यक्रम मिलेगा तो हमें भी कार्यक्रम देना पड़ेगा । सब कुछ ठीक ठाक था, अचानक एक प्रोग्राम के दौरान अनुमोद और लक्ष्मण में विवाद हुआ। लक्ष्मण ने इस्तीफ़ा दे दिया और मेरे परम मित्र प्रदीप ठाकुर को अध्यक्ष बना दिया गया। खैर, मुझे अकेले चलना और अपनी पहचान बरकरार रखना आता है। लेकिन मूल मुद्दे से जब कथित कलाकार संघ भटकते हाँ तब खीज होती है। दस दिन पहले जब फ़िल्म के सेट पर आगज़नी हुई, और कलाकार जल भुन गए तब कोई कलाकार संघ आगे क्यों नहीं आया? कहाँ हैं कलाकार और उनका संगठन?

06 November 2009

प्रभाष जी , आप जिंदा हैं...

ज़िंदगी की कुछ हसरतें कभी पूरी नहीं होतीं। प्रभाष जी से मुलाकातें तो हुईं पर उनका कभी सानिध्य नहीं मिला। एक ऐसे वरिष्ठ साथी थे प्रभाष जी, जिन्होंने लिख लिख कर हम जैसे लोगों को पढने पर मजबूर किया। आज सुबह सुबह भड़ास ४ मीडिया का जैसे ही एसेमेस आया। दिल बैठने लगा था। भावुक लोगों के साथ कई दिक्कतें होती हैं। और ऐसे में अपनी बिरादरी का बाप जैसे एक गुरु ( उनकी लेखनी से उनका शिष्य ) का देहावसान एक ह्रदय विदारक मामला था। दिन तो जैसे तैसे कट भी गया। शाम को जब राज्योत्सव जाने की बारी आयी तो मन् फ़िर भारी हो गया। अपनी ही बनाई कलाकारों की संस्था आलाप ( जिसमें आज मैं कहीं नहीं हूँ ) के शो लिए मुझे आमंत्रित किया गया था। वहां भी जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। कुछ सहयोगी समझाते रहे। एक की बात मुझे लग गयी। सहयोगी ने कहा था, जब आप मर जाओगे तब भी राज्योत्सव रुकेगा नहीं।
ये बड़ी विडम्बना है देश की। जो लोग नेता बनाते हैं, उन्हें ग़लत और सही की जानकारी देते हैं , ऐसे लोगों की मौत पर कोई शोक नहीं होता। नेता मर जायें तो बाप रे बाप॥ खैर बहुत से लोगों ने बहुत कुछ लिखा है प्रभाष जी के बारे में। सच कहूँ तो उनके बारे में कुछ लिखने की औकात भी नहीं है मेरी। लेकिन दिल भारी था तो सोचा एक बात तो लिख ही दूँ जो शायद कोई नहीं लिखेगा। प्रभाष जी , आप जिंदा हो। अब हमारी कलम भी आपके हवाले। हम जैसे कुछ मिशन वादी पत्रकारों के मन् में आप सदैव जीवित रहोगे। आप जिंदा हो प्रभाष जी॥ आप जिंदा हो.

05 November 2009

अग्रवालों को निपटा रहे हैं श्रीवास्तव

जब छत्तीसगढ़ राज्य बना और जोगी की का आक्रामक रुख हम लोगों ने देखा तो ऐसा लगने लगा था कि छत्तीसगढ़ में रहना है तो इसाई बनना बेहतर है। आम आदमी का डर आकाश चैनल में रहकर अपनी आंखों से देखा है मैंने। बाद में जब जोगी जी से थोडी घनिष्ठता बढ़ी तब लगा आदमी वैसा नहीं है। कई बार अपने चेहरे पर आवरण चढाना भी पड़ता है। वही हाल अनिल पुसदकर का भी है और हाँ मेरा भी। हम लोगों की फितरत वैसी नहीं है पर हम जानते हैं जिस दिन हम लोगों ने अपना मुंह और कलम शांत की उस दिन कुत्ते बिल्ली की तरह लोग हमें नोच खायेंगे। मैं ये तुलना इसीलिये कर रहा हूँ की हमारी सोच एक जैसी है इसीलिये हम साथ में काम नहीं करते। अपने दुश्मनों को निपटाना कोई बुरी बात थोड़े ही है। डॉक्टर रमन सिंह के चेहरे से बहुत प्यार करता हूँ मैं। मेरा बेटा भी वैसा ही गोपू गोपू है. हमेशा उसे देखकर गाल चिमटने और प्यार करने की इच्छा होती है
डॉक्टर साहब वैसे भी बुरे नहीं हैंउनके मंत्रिमंडल और अफसरों ने एक अग्रवाल लॉबी को जानबूझकर खड़ा कर दिया हैराजिम कुम्भ में जब डॉक्टर साहब को ये जानकारी मिली तो बजट पर लगाम कसी थी उन्होंनेइस बार राज्योत्सव में एक अफसर ने अपने ही विभाग के अग्रवाल मंत्री के विरुद्ध एक षडयंत्र रचा हैपुलिस विभाग से आए इस अफसर को शायद इस बात का भान नहीं है कि उस मंत्री के समर्थक पूरी छत्तीसगढ़ की पुलिस से भी ज्यादा हैंइस अफसर ने श्रीवास्तव , वर्मा और इन्ही श्रेणी के लोगों को इस बार राज्योत्सव में लगाया है, ये लोग भी निजी तौर पर एक एग्रीमेंट के तहत जोड़े गए हैंआने वाले समय में स्थिति विस्फोटक होगी हीब्लॉग इसीलिये लिख दे रहा हूँ ताकि बाद में लोग ये बोलें कि तुम्हे पता था तो बताया क्यों नहींये भी सम्भव है कि जातिवाद का ज़हर छत्तीसगढ़ में घोलने वालों के विरुद्ध कोई सेना तैयार हो जाएसब जानते हैं अफसर आते जाते रहते हैं मंत्री को तो यहीं रहना हैअब ये बात अफसर नहीं जानते या जान बूझकर ऐसा कर रहे हैं तो प्रभु श्रीराम ही उनकी नैय्या पार करेंजय श्री राम

03 November 2009

मंत्री के भाई के लिए होता है राज्योत्सव?

दीन - दुनिया से दूर सूफी गायक कैलाश खेर के साथ छत्तीसगढ़ के नवें राज्योत्सव के दौरान जो कुछ भी हुआ वो न सिर्फ़ छत्तीसगढ़ के लोगों के किए शर्मनाक है बल्कि कलाकारों के लिए भी हैरतंगेज बात है। पूरे रायपुर के लोग जानते हैं की रायपुर शहर में दो केबल चल रहे हैं । यानि आधा आधा शहर उनकी अवैध खबरें और कार्यक्रम देखता है। अवैध शब्द का इस्तेमाल केबल एक्ट १९८६ के तहत लिखा गया है। खैर... केबल एक्ट का ज़िक्र इसीलिये करना पड़ा क्योंकि एक केबल में संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का भाई भी २४ घंटे का एक channel चलाता है। इसी channel के लिए जब कैलाश खेर ने बातचीत करने से मना कर दिया तो उसकी फजीहत हुई।
हम तो लगातार देख रहे हैं । अब तो ऐसा लगने लगा है की राज्योत्सव का आयोजन सिर्फ़ मंत्री के भाई योगेश अग्रवाल और उसके चंगु मंगू लोगों को काम देने के लिए ही किया जाता है। संस्कृति विभाग सिर्फ़ उन्ही लोगों को काम दे रहा है, जो योगेश के करीबी हैं। आयोजन के लिए क्या छत्तीसगढ़ के कर्मचारियों का अमला कम पड़ता है, जो उन्हें बाहर से co- ordinator जैसे पद का समायोजन करना पड़ता है? पूरे आयोजन का काम मंत्री के भाई के लोग कर रहे हैं। मैं सूचना जानने के अधिकार के तहत पूरी सच्चाई का पता करके आप सभी लोगों को सारी सच्चाई बताऊंगा,।
अपना राज्य है, अपना राज्योत्सव , तो फिर मुंबई के कलाकारों की ज़रूरत क्या है। और अगर ज़रूरत है भी तो ज़रूरी है की मंत्री का भाई या उनके चम्मच ही ये काम करें।

21 October 2009

सपना पूरा हुआ.. जोसेफ भैय्या का..

जब मैं पैदा हुआ , तब जोसेफ भैय्या नवभारत में सिटी चीफ हुआ करते थे। मुझे पता है कि उम्र तजुर्बे के आड़े कभी नहीं आती। मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे गुरु हमेशा अच्छे मिले। नाटकों से जुडा तो स्वर्गीय हबीब तनवीर मेरे सामने थे। संगीत की शिक्षा पाने गया तो सरस्वती देवी जैसी माँ स्वर्गीय डॉक्टर अनीता सेन साक्षात थीं और यहीं आर्शीवाद मिला सोहन दुबे जी का। छायांकन और सम्पादन की बारी आयी तो जमाल रिज़वी और कन्हैया पंजवानी ने मुझे हाथों हाथ लिया। पत्रकारिता से जुडा तो एम् ए जोसेफ के दर्शन हुए। भगवान ऊपर से लाख कोशिश कर ले, नीचे के लोग एक अलग दुनिया जी रहे होते हैं। धर्म , कर्म , जात और संप्रदाय से कोसों दूर। मुझे ईश्वरीय आर्शीवाद ही था जो मुझे अच्छे गुरुओं का सानिध्य मिलता रहा । आज जो भी पढ़ लिख रहा हूँ वो जोसेफ भैय्या का ही आर्शीवाद है। अगर वो मेरी लिखी ख़बर को बार बार फाड़ कर कचरा दान में नहीं डालते या ज़मीन पर नहीं फेंकते तो आज मैं अच्छा पत्रकार नहीं होता, उस समय बुरा ज़रूर लगता था लेकिन आज बहुत अच्छा लगता है। मैं जब भी कोई ख़बर उनके सामने लिख कर रखता मेरी साँस अटकी रहती थी, पता नहीं क्या बोलेंगे। फेंक कर कहेंगे फ़िर से लिखो। उनके साथ कई अखबारों में काम करने का मौका मिला। वो हर जगह मेरी सिफारिश करते। जब प्रखर टी वी शुरू हुआ तो उन्होंने मुझसे साफ़ कहा था कि अब तेरा ऋण चुकाने का वक्त आ गया है, मैं फ़िल्म , वृत्त चित्र निर्माण और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बहुत आगे जा चुका था । उन्होंने मुझसे कहा था अब ये काम तू मुझे सिखा ।
....खैर ये तो हुई पुरानी बात। लेकिन सच ये है आज जिस ओवर ब्रिज का शिलान्यास मुख्यमंत्री ने किया उसका सपना जोसेफ भैय्या ने ही देखा था। नवभारत के बाद वो जहाँ भी गए। सब जगह उन्होंने इस बात के लिए आवाज़ बुलंद की कि टाटीबंध के पास एक ओवर ब्रिज का निर्माण होना ही चाहिए,.आज उनका सपना साकार हुआ है। मैं आज ख़ुद ओवर ब्रिज घूमकर आया हूँ । मेरी सदिच्छा थी कि मेरे गुरु का सपना पूरा हो , लेकिन दलाल पत्रकारों के बीच हम अपनी बात रख नहीं पाये।
हर इंसान का एक सपना होता है। आज उनका सपना पूरा हुआ। कुछ साल पहले भाभी जी की मौत के समय भी हम साथ थे। कई बार हमें लगता था कि जोसेफ भैय्या अपने स्वार्थ के लिए लिखते हैं , लेकिन आज जब वहां जाकर लोगों से बातचीत की तो लगा कि ये सपना सबका था, लेकिन आवाज़ बुलंद करने वाले जोसेफ भैय्या ही थे। उस समय पत्रकार की हैसियत कलेक्टर से कम नहीं थी। मोहल्ले में किसी पत्रकार का रहना पूरे मोहल्ले के लिए महफूज़ समझा जाता था। छोटी छोटी सी बात पर पूरा मोहल्ला पत्रकार के घर पहुँच जाता था। तनख्वाह भले कम थी पर जलवे में कोई कमी नहीं आती थी।
हम कई बार उनकी पीठ के पीछे उनकी बुराई किया करते थे कि जोसेफ भैय्या मूर्खता कर रहे हैं। ख़ुद अपने आने जाने के लिए ओवर ब्रिज कि मांग कर रहे हैं। उस समय वहां कि सूनसान पड़ी सड़कों पर विद्युत व्यवस्था पर भी खूब लिखते थे जोसेफ भैय्या।आज उनका सपना पूरा हुआ। इस सपने की एक हकदार भाभी जी हमारे बीच नहीं हैं फिर भी हम उन्हें नम आंखों से बिदाई देते हुए हौसला रखते हैं कि दृढ़ विश्वास के साथ सोचे हुए सपने आज नहीं तो कल साकार होकर ही रहेंगे।

बाबूजी की मौत.. और मज़ाक ...हद्द है...

....और बाबूजी नहीं रहे। एक ढाबा संचालक की हत्या से इस बार कोई सनसनी नहीं मची। इस हत्या ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया की कलयुग है । अब कुछ भी हो सकता है। बाबूजी यानी ढाबे के मालिक। टाटीबंध रोड का ये ढाबा कई मायनों में अनूठा था। यहाँ शुरू से शराब प्रतिबंधित थी। अपने परिवार को लेकर आप वहां बेफिक्र होकर आ जा सकते थे। जब छत्तीसगढ़ नहीं बना था तब से एम् पी ढाबा यहाँ चल रहा था। दुर्ग में अमर किरण से नौकरी करके लौटते वक्त हम लोगों ने कई बार यहाँ भोजन किया। राज्य बनने के बाद भी कई बार परिवार के साथ या कभी दोस्तों के साथ यहाँ खाने का मौका मिला। मैं जब भी वहां जाता उनके मालिक को हर बार इस बात के लिए साधुवाद देता की आपने ढाबा तो नाम रखा है लेकिन ढाबे की खासियत से इसे दूर रखा है। कई बार गुस्सा भी आता था जब कुछ दोस्तों की जिद पर उनके साथ शराब खरीदने भिलाई या दुर्ग तक जाना पड़ा। ऐसा लगता था की यही शराब मिल जाती तो उतने दूर क्यों जाना पड़ता।
......बाबूजी के एक बाजू में डंडा हमेशा तैयार रहता था। कारण पूछने पर वो हंस दिया करते। कल जब इस बाबूजी की असलियत पता चली तो अवाक रह गया । साला ऐसा था बाबूजी। वहीँ के एक नौकर ने बाबूजी की हत्या कर दी। बाबूजी शब्द भी उसी नौकर का दिया हुआ है। हमारा कोई सम्बन्ध नहीं था उनसे। नौकर की मानें तो बाबूजी उसके साथ अनाचार किया करते थे। रोज़ रोज़ की हरकतों से तंग आकर उसने निबटा दिया अपने बाबूजी को। अब बाबूजी हंसी का पात्र बन गए हैं । लोग अब इसी नाम से ताने भी मारने लगे हैं..कल के कल कुछ नयी गालियाँ भी बन गयी। दिन भर जहाँ भी गया सब बाबूजी की मौत पर अपने नए dialogue सुनाने लगे। इस हत्या ने एक बात की तो सीख दी की हर इंसान जैसा दिखता है ज़रूरी नहीं है की वह वैसा ही हो जैसा आप उसके बारे में सोचते हैं. कुछ बुजुर्ग जो बाबूजी को जानते थे वो इस बात पर अफ़सोस करते ज़रूर दिखे की अचानक बुड्ढा ठरक कैसे गया। मरने वाली जान की आत्माएं सम्माननीय हो जाती हैं पर बाबूजी के साथ ऐसा नहीं हुआ। खैर जो जैसा करेगा वैसा भरेगा । लेकिन बाबूजी की ऐसी मौत ने उनके पुराने एल्बम की सारी फोटो को झुठला दिया है।

20 October 2009

अब लाइन मिली जी २४ घंटे छत्तीसगढ़ को.. आख़िर सवाल सरकारी विज्ञापन का है.

मध्यप्रदेश के दौर में छत्तीसगढ़ में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पहल करते वक्त ही मुझे पता था कि ये लाइन आगे बढेगी और आने वाले समय में अच्छे पत्रकारों का टोटा होगा। ऐसा हुआ भी। बाहर के लोग भले ही छत्तीसगढ़ के लोगों को नॉन टेक्नीकल बोल - बताकर उन्हें मूर्खों की श्रेणी में रखें लेकिन मुझे पता है की एक न एक दिन ये बात भी लोगों को समझ में आएगी की अपने आपको श्रेष्ठ बताने के लिए दूसरों को मूर्ख साबित करना कितनी बड़ी मूर्खता है। १९८६ से जनऊला की शुरुआत करते समय लोगों ने हमें पागल घोषित किया था। आज उसी मीडिया के पीछे लोग पागल हैं। कई चैनलों को शुरू और बन्द होते देख एक बात तो बहुत अच्छी तरह से साफ़ हो गयी की ये पूरा खेल पैसों का है।
छत्तीसगढ़ में जब १३ माह पहले जी २४ छत्तीसगढ़ ने दस्तक दी तभी समझ में गया था कि आगे जाकर इसका होना क्या है। बाहरी लोगों के मन् में जो आया वो किया और अब सबको अपनी औकात पता चल गयी है। यही लोग हैं जिनके कारण मीडिया में इस channel का नाम जी २४ घंटे अफवाह रखा गया। सात नक्सली मरते हैं तो यहाँ चालीस कि ख़बर चलती है। अधिकृत तौर पर पुष्टि हो जाने बाद भी एंकर को बताने में शर्म नहीं आती कि दरअसल मरे सात ही हैं कोई बच्ची रिंग रोड में घायल होती है तो उसे यहाँ मृत बताकर स्क्रॉल चला दिया जाता है। लोकल लोग field में शर्मिंदा होते फिरते हैं। करें तो करें क्या? इसी channel में दिन पहले भिलाई को जिला बताया गया था। एक ख़बर में एंकर ने कहा था कि भिलाई के जिला पुलिस अधीक्षक ने इस मामले की जानकारी दी। फिर ख़बर में aston में जिला पुलिस अधीक्षक दुर्ग लिखा हुआ आया। नवरात्री के बाद जंवारा विसर्जन में झूपना और बाना धरना इस channel को अन्धविश्वास लगता है। अरे भाई आप लोग यहाँ रोजी रोटी के लिए आए हो। नए पत्रकार हो तो यहाँ के वरिष्ठजनों से सीखो। पूछो उनसे कि दरअसल है क्या छत्तीसगढ़? धान घोटाले की ख़बर तो जबरदस्त थी। channel की टी आर पी तो बढ़ी लेकिन इनके उद्योगों की विद्युत व्यस्था ठप्प हो गयी। अलबर्ट पिंटो की तरह मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को पहली बार लोगों ने गुस्से में देखा। सरकार सरकार होती है। उद्योग इसके अभिन्न अंग होते हैं फिर बदमाशी किसने की? खैर रोजाना छोटी बड़ी गलतियों के साथ अब channel को line मिल गयी है। आख़िर क्यों करें अब सरकार का गुणगान सवाल सरकारी विज्ञापन का है। १३ महीने के अनुभव ने आख़िर सब कुछ सीखा दिया। छत्तीसगढ़ के लोग सीधे सादे हैं मूर्ख नहीं हैं आप नहीं बताओगे कि घोटाला नहीं हुआ है तो भी घोटाले तो होंगे सरकार अपना काम कर रही है आप भी अपना काम करें तो बेहतर है। डॉक्टर रमन सिंह ने तो कहा भी है कि आप लोग हरिश्चंद्र की औलाद तो नहीं हैं। अब बाबा रामदेव का आर्शीवाद है इसका मतलब ये तो नहीं है कि आप बोल देंगे तो १०० प्रतिशत मतदान हो ही जाएगा। एक बात और साफ़ कर दूँ कि ये ब्लॉग लिखने का उद्देश्य सिर्फ़ छत्तीसगढ़ के लोगों कि भावनाओं को आहत करने वाले बाहरी पत्रकारों को समझाना मात्र हैकोई ग़लत समझ ले।
अन्यथा लें..

12 September 2009

ब्यूरो चीफ ने काटी थाने में रात , मामले भी थे पूरे सात

news one channel के नाम से कई महीने तक अपने ही स्टाफ को झांसा देने वाला ब्यूरो चीफ आख़िर पुलिस के हत्थे चढ़ ही गया। शहर की कई युवतियों और युवकों को नौकरी पर रखकर तीन महीने तक उन्हें तनख्वाह के लिए घुमाने वाला news one channel का ब्यूरो चीफ कमलेश बहुखंडी अब पुलिस की हिरासत में है। एक ४२० के मामले में मौदहापारा पुलिस ने परसों उसे गिरफ्तार किया था। कमलेश ने अपना मुचलका करवा लिया और घर लौटने की तैय्यारी में था तभी वायरलेस सेट पर चली एक सूचना ने उसे फिर मुश्किल में डाल दिया। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की चौकसी के कारण सिविल लाइंस पुलिस ने उसे फिर हिरासत में ले लिया।
गश्त पर निकले पुलिस दल ने उसे उठा लिया। कई दिनों से वारंट लेकर घूम रही पुलिस को आख़िर कमलेश मिल ही गया। सिविल लाइंस पुलिस के इलाके में ही कमलेश ने एक ऑफिस ले रखा था। पुलिस जब भी दफ्तर जाती। कमलेश का गार्ड पुलिस को बैरंग लौटा देता। पुलिस पहले इस बात को लेकर परेशान थी की कमलेश एक पत्रकार है और पत्रकार की गिरफ्तारी से बवाल खड़ा न हो जाए।
news one के कर्मचारी भी प्रेस क्लब के चक्कर काटने लगे थे। प्रेस क्लब के अध्यक्ष श्री अनिल पुसदकर को मैंने पूरे मामले की जानकारी दी तब कहीं जाकर सभी कर्मियों ने थानों में रिपोर्ट लिखवाने का फैसला लिया। मैंने भी दो तीन बार कमलेश से मोबाइल पर बात करके मामले को आपस में बैठकर सुलझाने की सलाह दी थी। इसी बीच पता चला की कमलेश जिस किराए की कार में चलता है, उसका भी कोई फड्डा है। कार का मालिक तो सीधा था लेकिन जिन लोगों के सामने उसने अपना दुखडा रोया वो लोग प्रभावशाली निकल गए। इसी दौरान एक और ४२० के मामले में उसकी गिरफ्तारी हो गयी और पुलिस को थाने में ही बैठकर उसके वारंट की तामीली का इंतज़ार नहीं करना पड़ा। अलग अलग थानों में हुई रिपोर्ट के कारण चौथे स्तंभ का मज़ाक उडाने उत्तराखंड से छत्तीसगढ़ आए कमलेश को हथकडी पहननी पड़ गयी। रात को उसने थाने में कई बहाने बनाये ताकि उसे अस्पताल में दाखिल कर दिया जाए। कमलेश भूल गया था की बाहर हम लोग उसकी खातिरदारी के लिए खड़े हैं और लूटपाट के बाद सबको ये दिन देखना ही पड़ता है। मुझे लगता है की चौथे स्तम्भ का मखौल उडाने वालों के लिए अब सज़ा का वक्त आ गया है। हितवाद में कुछ समय काम करके दुकानदारी नहीं चलायी जा सकती। पत्रकारिता एक मिशन है और इसका दोहन करने वाले शनैः शनैः निपटेंगे ही। आप भी अगर ऐसे लोगों को जानते हैं तो मुझे सूचित करें । सब मिलकर गन्दगी मिटायेंगे। ऐसी मछलियों को अब बाहर का रास्ता दिखाना ही पड़ेगा, जो तालाब पर बुरी नज़र बनाये हुए है।

05 September 2009

दिल्ली के दलाल, छत्तीसगढ़ के अलाल

इंडिया न्यूज़ के नाम पर वसूली के मामले ने एक बात तो साफ़ कर दी है कि अब दिल्ली के कुछ दलाल और छत्तीसगढ़ के अलाल अब एक हो गए हैं। दिल्ली के पत्रकार जहाँ दिन रात एक करके अपने channel की टी आर पी बढाने और अपने आपको साबित करने की होड़ में लगे हैं वहीँ छत्तीसगढ़ के पत्रकार भी राष्ट्रीय चैनलों में अपनी पैठ बढाने में जुटे हैं। खासकर छत्तीसगढ़ के ग्रामीण पत्रकार , कई महीनों से तनख्वाह की आस लगाये ये पत्रकार आज भी समस्याओं से जूझ रहे हैं। स्पर्धा के इस दौर में संवाददाताओं में भी ज़बरदस्त स्पर्धा है।
दिल्ली के दलाल और छत्तीसगढ़ के अलाल पत्रकार आखिरकार सक्रिय हो ही गए। ये पूरा एक गिरोह है। ये लोग सिर्फ़ पैसे वाले लोगों को पत्रकार बनाना चाहते हैं। आज पत्रकारिता और आर टी की नौकरी एक बराबर हो गयी है। आर टी ओ में जाने के लिए एक अघोषित नियम है, उसकी प्रक्रिया पूरी करने के बाद ही सिपाही से लेकर अफ़सर तक की पोस्टिंग की जाती है। इस पूरे खेल में शामिल होते हैं कई दलाल और वो शख्स किसे आर टी ओ में जाना होता है। यही खेल अब पत्रकारिता में भी शुरू हो गया है। अब ये बात अलग है की आर टी ओ से लौटने के बाद उन्हें naxali इलाकों में जाना एक अनिवार्य नियम है। ये जानते हुए भी दिल्ली के कुछ दलाल और छत्तीसगढ़ के कुछ अलालों ने भी हाथ मिला लिया है। कुछ इन दलालों और अलालों की चपेट में भी आकर लुट भी चुके हैं । कुछ अपनी कुर्बानी का इंतज़ार कर रहे हैं । अब चिंतामणि का ही किस्सा ले लें। पिछले कुछ सालों से वो अखबारों से जुड़ा तो था। क्या ज़रूरत थी इलेक्ट्रोनिक मीडिया में चुपचाप आने , लेकिन पता नहीं दलालों और अलालों ने उसे क्या घुट्टी पिलाई, वो कुछ भी मानने को तैयार ही नहीं था। उसे अलाल ने कहा कि channel में काम मिलना आसान नहीं है। पी एस सी से भी ज़्यादा कठिन साक्षात्कार होता है दिल्ली में। पैसा दे दोगे तो कोई साक्षात्कार नहीं होगा, और channel प्रमुख सीधे आपको सारे doccument ख़ुद अपने हाथ से सौंपेंगे। कई दलाल और अलालों कि मिलीभगत का नतीजा ये हुआ कि पत्रकारों के मामले थानों तक पहुँचने लगे हैं। दूसरो को न्याय का भरोसा दिलाने वाले पत्रकार अब ख़ुद न्याय की आस में पुलिस के चक्कर काट रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के लोगों को सीधा सादा और गरीब समझने वाले लोगों को कब अकल आएगी, पानी सर के ऊपर जाने के बाद chhattisgarhiya क्या करेगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। दिल्ली की ये बीमारी chhattisgadhi पत्रकारों के लिए गले की हड्डी बनती जा रही है। पैसा लगाकर पत्रकार बनने वाले लोग न तो समाज का भला करेंगे न देश का। ये तो आर टी ओ में पोस्टिंग के बाद सिर्फ़ अपना पैसा निकालेंगे। इनके शिकार भी कई लोग होंगे। मिशन से कमीशन तक पहुँची पत्रकारिता को पता नहीं ये लोग कहाँ ले जाकर छोडेंगे? पत्रकारिता के इस अभियान को बाजारू बनाने के लिए पता नहीं क्यों लामबंद हो रहे हैं ये लोग? आज हर व्यवसायी या तो अखबार से जुड़ रहा है या पैसा देकर channel का ब्यूरो बनने की फिराक में लगा है, ये लोग एक नया उद्योग स्थापित करने में जुटे हैं, जो बेहद घातक है पत्रकारिता के लिए। पर फिक्र किसे है। जो पत्रकार पत्रकारिता में आने के लिए दिल्ली के संपर्क में हैं उसे अपना भविष्य अन्धकार में दिख रहा है।
आज पत्रकार ख़बरों की चर्चा करते नहीं दिखते, उमके लिए अब टार्गेट मायने रखता है। अब पत्रकारिता जब उद्योग की शक्ल अख्तियार कर रही है तो आओ हम भी पत्रकार लिखने की बजाय अपने आपको उद्योगपति लिखना शुरू करें । इन धन्ना सेठों की ख़बर आज नहीं तो कल ज़रूर बनेगी, मुझे पूरा विश्वास है।
छत्तीसगढ़ में जब से सरकार ने गरीबों को दो रुपये किलो चावल देना शुरू किया है, तब से अलालों का गढ़ होने लगा है छत्तीसगढ़ । काम क्यों करें भला ये लोग। गाँव में मजदूर नहीं मिल रहे हैं । शहरों का भी यही हाल है। लोग समझ गए हैं आराम और हराम का मतलब। इसी की हवा अलाल पत्रकारों को भी लग गयी है। कौन दिन रात मेहनत करे। किसी को टोपी पहनाओ और चलते बनो। अब इंडिया न्यूज़ के नाम से वसूली करने वाले उद्योगपति ज़रीन का ही मामला लें। छः महीने में उसने वो सब कुछ कर किया , जो कई पत्रकारों के लिए एक सपने जैसा ही है। घर ले लिया , ज़मीन ले ली। घर में नए फर्नीचर ला लिए। ब्लैक & व्हाइट और कलर टी वी हटाकर वहां plazma टी वी लगा लिया। कार खरीद ली। यानी छः महीने में दो तीन लोगों को चुना लगाकर वो बड़ा पत्रकार बन गया। अब तो उसकी दिनचर्या बदल गयी है। दिन भर लोगों से बचकर घूमना , किसी का मोबाइल नहीं उठाना- ये सब उसकी आदत में शुमार हो गया है। अब कैसा करेगा। पुलिस उसके पीछे लग गयी है। अब चाहे उसे ज़मीन बेचना पड़े या makaan , उसे इंडिया न्यूज़ वाला मामला clear करना ही पड़ेगा। जिसकी इज्जत होती है, वो उसे और badhaata है, अब जिसका इज्जत से कोई रिश्ता नाता ही नहीं है, वो यही सब कुछ तो करेगा। दिल्ली के दलालों और छत्तीसगढ़ के अलालों से मैं आखिरी निवेदन कर रहा हूँ । मत करो सरस्वती के साथ मजाक। मत करो के साथ खिलवाड़ । पत्रकारिता को बाजारू मत बनाओ। मत खेलो आग से। इस आगज़नी से ख़ुद तो jhulsoge , साथ में कई लोगों के दिल से निकली आग जलाकर राख कर देगी इस समाज को......

04 September 2009

इंडिया न्यूज़ के नाम पर झांसा, एक पत्रकार के नाम पर रिपोर्ट

छः महीने से चल रही उठापटक आखिरकार थाने जाकर ही समाप्त हुई। रायपुर के एक पत्रकार चिंतामणि गढ़वाल ने सहारा समय के पूर्व संवाददाता ज़रीन सिद्दीकी के ख़िलाफ़ गंज थाने के अलावा पुलिस के वरिष्ठ आधिकारियों को एक पत्र सौंप दिया है। चिंतामणि के आवेदन के अनुसार इंडिया न्यूज़ के नाम पर दिल्ली के कोई फारूक और रायपुर के ज़रीन सिद्दीकी ने उससे तीन लाख बीस हज़ार रुपये यह कहकर लिए कि वो उन्हें इंडिया न्यूज़ में छत्तीसगढ़ का ब्यूरो चीफ बना देंगे। आठ मार्च २००९ से चल रहा यह खेल आखिरकार आज ख़त्म हो ही गया। चिंतामणि ने एक आवेदन के साथ आधिकारियों को वो सी डी भी सौंपी है जिसमें फारूक और ज़रीन ने पैसों के लेनदेन कि बात स्वीकारी है और जल्दी से जल्दी उनका काम करवाने की बात कही है। चिंता के पत्र में इंडिया न्यूज़ दिल्ली के senior principal corrospondent मुकुंद शाही का भी उल्लेख है। चिंतामणि के इस आवेदन ने फ़िर से पुलिस और पत्रकारों को चिंता में डाल दिया है।
चिंता के पत्र पर गौर करें तो आठ मार्च २००९ को उसने ये राशि अपने साथी रवि अग्रवाल और अतुल्य चौबे के सामने महाराजा होटल फाफाडीह में ज़रीन को सौंपी थी। इसके अलावा ज़रीन के flight की ticket aur hotel ka bill bhi chinta ne polis ko saumpa hai..

29 August 2009

नीली फ़िल्म दिखाकर/छुपाकर लाल हुए पत्रकार ......

छत्तीसगढ़ का पत्रकारिता जगत आज अपने आप में शर्मिंदा है। एक अफसर और उसकी पत्नी की नीली फ़िल्म दिखाने, छुपाने या अफसर से byte के बहाने मिलने वाले कई पत्रकारों के चेहरे की रौनक उडी हुई है। न्यूज़ २४ ने तो इसी मामले में अपने संवाददाता अर्धेन्दु मुख़र्जी को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। वैसे मैं अर्धेन्दु मुख़र्जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ वो वसूली जैसे मामलों से हमेशा दूर रहा है। मैं शुरू से उन वसूलीबाज़ पत्रकारों को जानता हूँ जो पत्रकारिता करने नहीं सिर्फ़ वसूली करने के लिए पत्रकारिता में आए हैं। वही पत्रकार हैं जो इस मामले में ज़्यादा रूचि ले रहे हैं और अपनी वसूली स्पर्धा में आड़े आने वाले पत्रकारों को निपटाने में लगे हैं । वोही लोग हैं जो इस मामले में संलिप्त पत्रकारों की शिकायतें channel के दफ्तरों तक पहुँचा रहे हैं। वो बिल्कुल नहीं चाहते की उनकी वसूली प्रभावित हो या कोई और उनसे आगे निकले। विदेश दौरा करके आने के बाद कई दिनों तक अपने ब्रीफकेस पर टैग लटका कर घूमने वाले पत्रकार इस बार बिना टैग के एअरपोर्ट से वापस आए हैं।एक अफसर ने अपनी बीवी के साथ नीली फ़िल्म बनाकर ये तो साबित कर दिया है कि रमन सिंह के राज में सब सम्भव है। जिसकी मर्जी में जो आ रहा है कर रहे हैं। अफसरों की इतनी औकात हो गयी है कि इस मामले में साधना न्यूज़ का प्रसारण तक प्रभावित किया गया। इस मामले भी सीख यही मिलती है कि शासन से जुड़े किसी भी आदमी से उलझना ठीक नहीं है। पत्रकारों को भी सोचना चाहिए कि जब सारे अधिकारी सीधे मुख्यमंत्री के संपर्क में हैं तो उनसे उलझना कहाँ कि समझदारी है। इस मामले में भी तो ऐसा ही संदेह है। एक अफसर अपनी ख़ुद की निजी बीवी के साथ नीली फ़िल्म बनाता है । उसे होश नहीं है कि ये फ़िल्म उसके कैमरे से बाहर कैसे चली गयी है। अगर कोई ठेकेदार इस मामले में शामिल था तो भी कैमरे से टेप बाहर कैसे आ गया। अब अफसर कहते हैं कि ऐसी कोई सी डी उन्होंने नहीं बनाई । उनकी पत्नी का कहना है कि अगर बीवी के साथ पति ही है तो क्या दिक्कत है। अपरोक्ष रूप से दोनों ने ये बात स्वीकार की कि गलती हुई है लेकिन चेहरे पर हवाइयां लगातार उड़ रही थी। दोनों बार बार ये बात कहते रहे कि वे किसी षडयंत्र का शिकार हुए हैं। ये बात अब तक मेरी समझ से बाहर है कि अफसर के हाथ में कैमरा था , पत्नी सामने थी तो फिर कैमरे का टेप बाहर आकर सी डी के रूप में तब्दील कैसे हो गया। सारे मामले अभी पुलिस कि जांच में हैं । कल ये मामला न्यायालय में चला जाएगा। गिरोहबाज पत्रकारों को इस मामले से सीख लेनी चाहिए। खासकर ऐसे पत्रकार जो एक मामले का पता चलने पर दो तीन पत्रकारों को साथ लेकर जाते हैं। वसूली हो गयी तो उसे आपस में बाँट लेते हैं। प्रेस क्लब ने तो साफ़ साफ़ कह दिया है कि वो इस मामले में आरोपी पत्रकारों के साथ नहीं हैं। ऐसे में सहारा समय पर चलने वाली एक ख़बर चौंकाने वाली रही। अचानक सहारा चौथे स्तम्भ कि दुहाई देने लग गया। साफ़ सुथरी छवि और न जाने क्या क्या कहने लग गया। प्रेस क्लब से छुपकर मार्केटिंग वाले बंदों का पेट काटकर सरकारी विज्ञापन में ख़ुद कमीशन खाने वाले लोगों का बदला हुआ रूप देखकर पत्रकार जगत हतप्रभ है। आपस की गला काट स्पर्धा में ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ बताना अच्छी बात है लेकिन दुःख के समय साथ खड़े होने की बजाय किसी को अकेले छोड़ देना कहाँ की समझदारी है?मुझे कभी कभी साधना के ब्यूरो चीफ पर तरस आता है। संजय जब etv में था । तब उसके पास एक पूरानी दोपहिया थी । आज उसके पास दो - दो मकान है। कार की भी ख़बर है मुझे। खैर,,,, अचानक चौथे स्तम्भ की दुहाई देने वाले सहारा के लोग क्या भूल गए की मार्केटिंग के बन्दों का पेट काटकर ख़ुद आर ओ लेने कौन पत्रकार अफसरों के चक्कर काटते हैं । मैं पूरी शिद्दत से जानता और मानता हूँ की पैसे से बहुत कुछ तो हो सकता है लेकिन सब कुछ नहीं .........

27 August 2009

सच का सामना - साधना

आप लोगों को ये तो मालूम होगा कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का एक रीजनल channel साधना की चर्चा आजकल छत्तीसगढ़ में कुछ ज़्यादा ही है। कारण भी पता होगा । लेकिन ये पता नहीं होगा कि ब्लू फ़िल्म की आड़ में कई हरे नोट स्वाहा हुए हैं। मैं अकेला ये मान लेता हूँ कि साधना ने अकेले पत्रकारिता का धर्म निभाया। बाकी channel और कुछ अख़बारों में तो दस दिन पहले ही सी डी पहुँचा दी गयी थी। फ़िर बाकी लोगों ने ये ख़बर क्यों नहीं उठाई। अपने ख़ास पत्रकारों की सुनें तो ये बात भी पता चली है की कुछ पत्रकार हाल ही में मलेशिया भी घूमकर आए हैं। जासूस पत्रकार बताते हैं कि पत्रकारों को ये ट्रिप उन लोगों ने करवाई जो ख़ुद इस काण्ड के हीरो हैं।
अन्दर कि बात ये भी है कि इस ख़बर के दोनों तरफ़ पैसा था। एक तरफ़ ठेकेदार थे जो सी डी चलवाने के लिए मुंहमांगी कीमत देने को तैयार थे। दूसरी तरफ़ वो आदमी है जो अगर ख़ुद सामने नहीं आता तो लोग आज भी बात करते कि यार वो कौन सा अधिकारी था पता ही नहीं चल रहा है। एक धड़ ख़बर चलवाना चाहता तो दूसरा धड रुकवाना।

22 August 2009

वाइस ऑफ़ इंडिया में ताला.. सच फ़िर जीता..

छत्तीसगढ़ में जब वाइस ऑफ़ इंडिया की हलचल तेज़ हुई, तो पता चला की वरिष्ठ भाजपा नेता कैलाश मुरारका ने यहाँ की frenchisee ली हैये भी पता चला कि दिल्ली का गाना गाने वाले एक फर्जी पत्रकार ने ये डील करवाई हैमैं जब कैलाश भइया से मिला तो सारी बातें साफ़ साफ़ कीमैंने उन्हें भी वाइस ऑफ़ इंडिया की अंदरूनी बातें बताईं। कैलाश भइया ने स्पष्ट किया कि सब ठीक हो जाएगाइस बीच यहाँ ब्यूरो का विवाद छिड़ने लगा था। मैंने साफ़ साफ़ कह दिया कि काम में ध्यान लगाओमुझे पता था कि आज नहीं तो कल ये फर्जीवाडा फ़िर सामने आएगा हीआड़ा टेढा और फर्जी पत्रकार समझ गया था कि अगर कैलाश भैय्या और मैं मिलते रहे तो कभी भी उसकी दुकान बंद हो सकती हैउसने दांव खेलने शुरू कर दिए थेउस फर्जी पत्रकार को लगा कि दिल्ली सिर्फ़ उसीने देखा हैहम लोग २२ साल से यहाँ ऐसे फर्जीवाडे कई देखे हैंऐसे कई लोगों को बुलकाकर छोड़ा है हम लोगों नेमैंने चार दिन पहले ही कैलाश भैय्या से कह दिया था कि ये फर्जी channel है और आप यहाँ फंस गए होकुछ और चैनलों की बात भी हमने की थीउसी दिन मैंने उनसे कह दिया था की मैं व्यक्तिगत संबंधों में ज़्यादा विश्वास रखता हूँफर्जी पत्रकार के सामने ही मैंने widraw किया थाबड़ी बातों से channel नहीं चलता

आज सच फ़िर जीत गया है, वाइस ऑफ़ इंडिया में दिल्ली में ताला लग गया हैमुझे ऐसे पत्रकारों से कोफ्त होने लगी है जो तनख्वाह की आस में महीनों पड़े रहते हैंवाइस ऑफ़ इंडिया के पूरे भारत में ऐसे कई पत्रकार साथी हैं जो

20 August 2009

वाइस ऑफ़ इंडिया या वाइस ऑफ़ मनी....

दो साल पहले जिस ताम झाम के साथ वाइस ऑफ़ इंडिया ने भारत में दस्तक दी थी , उससे लग रहा था कि यही channel सच में भारत की आवाज़ बनेगा। इस channel ने नेशनल और रीजनल चैनलों में जमकर अपना कमाल दिखाया। अच्छी ख़बरों का न तो बलात्कार होने दिया और न ही उसे लावारिस छोड़ा, लेकिन अब तो आर्थिक मंदी ने भारत की इस आवाज़ का गला घोंट दिया , न सिर्फ़ गला घोंटा बल्कि उसे बाजारू लोगों के हाथों में सौंप दिया। ऐसी बोली लगी कि भारत की ये आवाज़ एक वेश्या कि तरह बाज़ार में खड़ी कर दी गयी। जिसके पास पैसा हो वो सौदा कर ले और ले जाए। भारत की इस आवाज़ से वेश्यावृत्ति कराने के लिए शक्ल से ही दलाल दिखने वाले लोगों को बाज़ार में छोड़ दिया गया। इन दलालों कि औकात उन रिक्शे वालों से ज़्यादा की नहीं होती जो स्टेशन या बस स्टैंड से ग्राहकों को होटल पहुंचाते हैं और होटल के मेनेजर से २० रूपया ले लेते हैं।
मैं chhattisgarh और madhyapradesh में वाइस ऑफ़ इंडिया के haalaton को देखने के बाद ही ब्लॉग लिखने baitha हूँ। chhattisgarh में जिस दलाल ने frenchizee dilwayee , वो swayambhu ख़ुद को bureau भी बताता है। दो साल की prashikshu patrakarita के बाद कोई bureau bana है क्या। मैं २२ साल तक patrakarita करने के बाद इतना तो समझता हूँ की electronic मीडिया के पत्रकारों की आवाज़ , shailee और शब्द कोष achchha होना चाहिए। यहाँ तो had हो गयी है। खैर , channel उनका है। chhattisgarh के कई पत्रकारों को वाइस ऑफ़ इंडिया ने sellery नहीं दी है, वैसे तो और भी कई channel का यही हाल है। पर बात अभी हम वाइस ऑफ़ इंडिया की ही कर रहे हैं baaki channel पर फिर कभी बात करेंगे।