26 July 2011

नारायण नारायण.. तुम्हें तो फाँसी पर लटका देना चाहिए.

.....................सच कह रहा हूँ. पत्रकारों को घुमाने के नाम पर तुमने लाखों रुपये हड़प लिए? पुलिस के शरीफ अफसरों के खिलाफ तुमने कलम उठाई ? लड़ते हो पत्रकारों के लिए? जिनके मालिक ख़ुद सरकार से मिलें हुए हैं. वो पत्रकार जो तलुए चाट- चाट कर अपना वजूद बनाये हुए हैं? धिक्कार है तुम पर..तुम्हें शायद पता नहीं है आज सबके सुर में सुर मिलाने वाले को ही पत्रकार कहा जाता है. जेल से बाहर आकर मुख्यमंत्री के आसपास घूमने वालों से आप पत्रकारिता सीखो. सोचता था जेल आकर आपको समझाता, पर वहाँ भी बंदिश कर दी गयी है. ऐसा क्यों हो रहा है आपको पता है? सरकार वो ही लोग चला रहे हैं जो इसके पहले वाली सरकार चला रहे थे. डंडा भी उन्हीं के हाथ में है. जो लाल बत्तियों में घूम रहे हैं-उनकी पोल पट्टी भी है इनके पास. बंद कर दो लिखना. आप जिनके खिलाफ लिख रहे हो क्या आम लोगों को उनके बारे में पता नहीं है? ये इतने स्वामी भक्त होते ,ईमानदार होते , सरकार का भला चाहते. या अपने आपको अच्छा साबित करना चाहते तो सबसे पहले अपनी पोस्टिंग नक्सली इलाकों में करवाते. राज्य का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार का मामला तो वहीं है. पर ये ऐसा नहीं करेंगे. शहर में रहकर जितनी ऐय्याशी कि जा सकतीं है, उतना मजा जंगली इलाकों में कहाँ है. आपको तो मैं समझदार समझता था. मुझे लगता था कि आपको पता होगा कि इन्ही अफसरों के भरोसे सरकार चलाना मजबूरी है. इन्ही अफसरों ने सारे आम हाथ पैर तोड़ा था इन्ही के एक बड़े नेता का. मजबूरी क्या नहीं कराती- अपने आपको बचाने के लिए क्या बढ़िया गेम खेला इन लोगों ने. जिन पत्रकारों को एक सिंगल ख़बर बनाना नहीं आता , उन्हें पत्रकार नेता बताकर आपके खिलाफ इस्तेमाल कर लिया. आप फँस गए. भुगतेगा कौन? आपके घर वाले. क्योंकि आपने ऐसा अनर्थ कर दिया है जिसके लिए ये सज़ा काफी है ही नहीं. रही बात फर्जी पत्रकार की. पूरे राज्य के प्रेस क्लब की हालत देख लो. पूरा फर्जीवाड़ा तो यहाँ है. यहाँ हाथ क्यों नहीं डालती पुलिस? उन्हें पता है यहाँ के लोग कम से कम तीन मंत्रियों का पैर पड़ते ज़रूर दिख जाते हैं. और हाँ शरीफ अफसरों के खिलाफ ना लिखते ना बोलते. चल रही है दुकान. रायपुर और बिलासपुर के पत्रकारों को कितनी बार तो नपुंसक लिख चुका. अब लगता है कि साबित भी करना ही पड़ेगा.


क्यों लिखा आपने उन अफसरों के खिलाफ ? मैं भी नाराज हूँ . अरे समय का इंतज़ार करो ना. बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी? आप जबरदस्ती हीरो क्यों बनना चाह रहे थे. सबको पता है कि पत्रकारों को घुमाने के लिए जो चेक जारी हुआ है वो नमन एविअशन के नाम पर है. आपका कोई रोल वहाँ नहीं है. अब आप ख़ुद पता करो ये नमन नाम से कौन सरकार को नमन किए जा रहा है. आप से अच्छे तो आपके खिलाफ रिपोर्टें लिखाने वाले लोग हैं जो सरकारी खर्चे से विदेश भी घूम आए. विदेशी बालाओं से खूब सारी पप्पी- शप्पी भी खुले आम की. बंद कमरों में क्या हुआ ये कोई आज तक बता नहीं पाया. बहरहाल आप नेतगिरी बंद कर दो. अब इंतज़ार करो अपने समय का. मैं भी अभी बैड रेस्ट पर ही हूँ. पर दिल है कि मानता नहीं. जान जली तो लिखने बैठ गया. आकर नियम पढ़ो कि वेब पर क्या लिखना है कैसे लिखना है. अफसरों के खिलाफ सीधे नहीं लड़ना है. आपने ही बताया था कि एक अफसर ने किस चीज कि पेशकश अपने मामले को छुपाने के लिए की है. ईश्वर नाम की कोई चीज है कि नहीं? मैंने देखा है ईश्वर को क़रीब से. आप उसके न्यायालय में ये मामला छोड़कर तो देखिये. वहाँ देर है पर अंधेर नहीं. जो नीचे कि दुनिया में अपने आपको तुर्रम खान समझ बैठे हैं उन्हें याद रखना चाहिए- तानाशाही का हमारे यहाँ ज़्यादा लंबा टॉप -अप नहीं मिलता. सब जायेंगे दो कौड़ी के भाव. क्योंकि पुलिस वाले जानते हैं कि वो ईश्वर है, पर ईश्वर को नहीं पता कि वो पुलिस वाला है. वहाँ फ़ैसला कर्म के आधार पर ही होता है,. कर्म ऊपर वाले से ज़्यादा दिन छुपाये नहीं जा सकते. नीचे के पत्रकार भले अपनी रोजी रोटी या प्रलोभन के कोई समझौता कर लें, ईश्वर के दरबार में सबकी पेशी तय है.

30 March 2011

300 का मोमेंटो...फिल्म स्टार्स के साथ फोटो.....

 आज तक हम  babylon का नाम सुनते थे, abylon का 
नाम पहली बार सुना. आप सोचेंगे की वाकई में ये abylon  क्या  है? अरे इसी नाम से तो छत्तीसगढ़ी फिल्मों के अवार्ड बंटे.
एक दैनिक अखबार,  जो राजेश शर्मा के चक्कर में बंद हो गया था. अब वो मासिक हो गया है. उसी को लांच करने के लिए तो फ़िल्मी कलाकारों का इस्तेमाल किया गया. छत्तीसगढ़िया लोग तो इस्तेमाल के ही लिए बने  हैं न? एक  फिल्म निर्माता को भी आगे आना था..उसी ने पैसा भी लगा दिया. क्या चल रहा है छत्तीसगढ़ में? चार चवन्नी भर पत्रकार जिन्हें खुद कुछ आता जाता नहीं है, उन लोगों की जूरी बना दी गयी. उन्ही लोगों ने अपने सम्पादक की नज़र में चढ़ने के लिए उन्हें आमंत्रित कर  लिया और हो गया "सिने अवार्ड".. वाह ये क्या बात हुई. आज की तारीख में प्रेम चंद्राकर और सतीश जैन के योगदान को आप भुला नहीं सकते, उनकी गैर मौजूदगी में ही हो गया ये आयोजन. राजेश शर्मा से धोखा खाने के बाद अब हमारे यहाँ के मंत्री थोड़ा परहेज करने लगे हैं,  बुलाया तो उन्हें भी गया था. अब बताइये न कार्ड छपा न कोई एस एम् एस हुआ. बस चार लोगों ने तय कर लिया और अपने हिसाब से पूरा प्रोग्राम तय हो गया. न किसी वरिष्ठ से राय ली न उन्हें कुछ बताया, बस हो गया आयोजन. छत्तीसगढ़ के कलाकार क्या वृहन्नला हैं जिन्हें छट्ठी- छल्ले के नाम पर कहीं भी नचवा लो.,
कुछ मजेदार किस्से सुनिए.. रवि अग्रवाल को यहाँ यह कहकर सम्मानित किया गया की HDV. की खोज उसने की है. अगर ये बात HDV  का निर्माण करने वाली कंपनी को हो गयी तो? (इस सन्दर्भ में रवि ने आपत्ति करते हुए मुझे इस आयोजन के वीडिओ फूटेज का हवाला देते कहा है की छत्तीसगढ़ में एच.डी.वी. पर पहली फिल्म बनाने के लिए उसे सम्मानित किया गया है. मैं रवि को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ. उर्जा और प्रतिभा उसमें कूट - कूट कर भरी है. दरअसल रवि और मैं एक ही ग्रह के सताए हुए हैं. हम अपने वक्त का इंतज़ार कर रहे हैं. कोई हमें इस्तेमाल न कर ले.., यही सोच सोच कर हम डरते हैं और वो डर सच का दामन पकड़कर हमेशा हमारे सामने खड़ा हो ही जाता है. अंतर्मुखी  व्यक्तित्व   होने के कारण हम दोनों में कई समानताएं हैं.) "बिदाई" फिल्म में पार्श्व  गायन के लिए अलका चंद्राकर को सम्मानित किया गया और वहां छाया चंद्राकर की आवाज़ वाला गाना " डेहरी ला लांघ के जाबे वो बेटी"  .. चलता रहा. मनमोहन को जिस फिल्म " टूरी नंबर ०१"  के लिए बेस्ट विलेन का अवार्ड मिला उसमें वो सहायक विलेन था. पुष्पेन्द्र सिंह इस फिल्म में विलेन थे.  कॉमेडी उस समय भी हुई जब बेस्ट कॉमेडियन की दौड़ में शामिल क्षमानिधि मिश्रा को अतिथि बनाकर मंच पर बुलाया गया और उन्ही के हाथों सवश्रेष्ठ कॉमेडियन का अवार्ड हेमलाल को  दिलवाया गया. मुकेश  वाधवानी और मनोज वर्मा की पूरे आयोजन में चली. जो लोग इन बड़ी बातों को यह कहकर टाल रहे हैं की चलो शुरुआत तो हुई, मैं उनमें से नहीं हूँ. आपको ये सब जानकर हैरानी नहीं हो रही है?  शुरुआत तो राजेश शर्मा ने भी की थी.,  आज वो भगोड़ा है, दरअसल एक दैनिक अखबार , जो राजेश शर्मा के कारण बंद हो गया था , उसे मासिक बनाकर शुरू करने के लिए ये षड़यंत्र रचा गया. षड्यंत्रकारी जानते थे कलाकार सम्मान का भूखा होता है. मिटा दी भूख उसकी. अनुज को छोड़कर सारे पुरस्कारों पर मुझे व्यक्तिगत आपत्ति है, चार लोग मिलकर छत्तीसगढ़ के कलाकारों का निर्धारण नहीं कर सकते. एक अखबार अब अपनी गलतियाँ सुधार रहा है. गलती सुधारी जा सकती है, लेकिन इस तरह के आयोजन से कलाकारों की छवि धूमिल तो होगी ही. अब आप भी अपने गाँव में ऐसे आयोजन करवाएं और सम्मान के चक्कर में देखिये कैसे दौड़े आते है कलाकार ?   

26 March 2011

ख़बर बनाने आया था, खुद ख़बर बन गया

कुल मिलाकर ये बात तय रही की छत्तीसगढ़ सरकार हर मामले में नाकारी ही है. खुले आम लूट मची है, यहाँ के मंत्रियों को पैसा दिखाओ और चाहो तो पूरे छत्तीसगढ़ को ही खरीद डालो. कौन है राजेश शर्मा? कहाँ से आया था? जो लोग राजेश शर्मा की मदद करते थे, उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं कर रही है पुलिस? बुजुर्ग ठीक कहते हैं अपना घर ठीक न हो तो बाहर की दुनिया सुधारने की कोशिश मत करो
हाजी  इनायत अली, हाजी मोहसिन अली सुहैल, मुकेश खन्ना और अनिल पुसदकर से ही पुलिस पूछताछ करेगी तो उसका दस हज़ार रूपया बच जायेगा. 
ये चारों  मिलकर राजेश शर्मा की काली करतूतों को  ढंकने के लिए अपने नाम और पद का दुरूपयोग भी कर रहे थे. मैं शुरू से सबको सतर्क कर रहा था, पर सब पैसों के पीछे  भाग रहे थे,  जब मैंने राजेश शर्मा के कथित और बिना पंजीयन के  न्यूज़  चैनल " हिन्दुस्तान न्यूज़" में श्रम विभाग का  छापा  डलवाया था, तब अनिल पुसदकर , प्रशांत शर्मा, हाजी मोहसिन अली  और धनंजय वर्मा ऐसे भागकर आये थे, जैसे उनके बाप के खिलाफ मैंने कोई शिकायत कर दी है. हमारा दूसरा टार्गेट था बिजली विभाग, घरेलु बिजली से यहाँ चैनल संचालित हो रहा था, वहां भी अनिल पुसदकर ने अपना पव्वा लगाया. जो चीज़ें ग़लत हैं, उसका विरोध क्यों नहीं होता, कितना पैसा कमाया राजेश शर्मा और उसकी चांडाल  चौकड़ी ने?  दरअसल छतीसगढ़ की नींव ही गलत तरीके से रखी गयी. यहाँ शुरू से पैसे वालों का बोल बाला रहा है, पैसा कहाँ से आ रहा है, इस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया, बस अपनी जेबें भरते चले गए मंत्री और खोखला होता चला गया छत्तीसगढ़. अब मध्यम वर्ग का आदमी करे तो करे क्या? हथियार भी तो नहीं उठा सकता ये तबका. उन पालकों के बारे में सोचिये, जिन्होंने अपनी खून पसीने की कमाई से अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए राजेश शर्मा को लाखों रूपया दिया. आह से मरोगे रे सब के सब. ढेर सारे उदाहरण सामने हैं, आँख खोलकर देख तो लो. वेश्याओं जैसे सब सिर्फ पैसा कमाने की होड़ में लग गए हो. जब " हिन्दुस्तान" में मैंने छापा डलवाया था, उसी दिन स्कूल शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को भी हमने शिकायत की थी, की   इसकी स्कूलों की जांच करवाओ,  विदेशी पैसों के  आवक जावक का भी पत्र हमने सौंपा था. मेरे पुराने ब्लॉग तारीख सहित इसके गवाह हैं. इसके बावजूद धड़ल्ले से पूरे छत्तीसगढ़ में राजेश शर्मा की स्कूलों का उदघाटन होता रहा. अब मुझे ये नहीं समझना है की ये सब कैसे संभव हुआ होगा. पालकों को तो स्कूल शिक्षा मंत्री से ही अपने पैसों की भरपाई की मांग करनी चाहिए,
पुलिस तो खानापूर्ति में माहिर है ही, अब उसे भगोड़ा बता रहे हैं. दस हज़ार का इनाम रखा है उस पर. जब दो साल पहले उसका साथी सिविल लाइन थाने में गिरफ्तार हुआ था, तभी से पुलिस सतर्क हो जाती तो इस घटना को टाला  जा सकता था. पर हाय रे पैसा. हो गया खेल. अब एक बात और साफ़ हो गयी की इन्हीं चोर उचक्के अखबार और चैनल वालों की 
" लाइज़निंग " "escorting "  और "marketing " करने के कारण अच्छा खासा पैसा बन जा रहा है, इसीलिये प्रेस क्लब का अध्यक्ष पद छोड़ने का मन नहीं  कर रहा है अनिल पुसदकर का. और जो लोग प्रेस क्लब में चुनाव करवाने के लिए जाने जाते हैं, उन्हें अपना  नौकर बना लिया था राजेश शर्मा ने.
एक भिखमंगा अचानक करोड़पति हो जाता है तो मुख्यमंत्री भी उसके कार्यक्रम में जाने को तैयार हो जाते हैं, कभी किसी छत्तीसगढ़ी कलाकार को सम्मान मिले न मिले, राजेश शर्मा के दलाल मुख्यमंत्री के हाथों भोजपुरी कलाकार का सम्मान करवाने में भी कोई कोर -कसर नहीं छोड़ते. छत्तीसगढ़ी कलाकारों को संस्कृति विभाग वाले नोच रहे हैं चूस रहे हैं और मलाई खाने आ जाते हैं भोजपुरी कलाकार. कौन है इसका ज़िम्मेदार? हम खुद. मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ कुछ नया करने की सोच रहा हूँ, हम अपने घर को ही नहीं बचा पाएंगे तो क्या मतलब ऐसी ज़िंदगी का? कुत्ते जैसे जीने से अच्छा है मर ही जाओ.

16 March 2011

राजेश शर्मा, जहाँ कहीं भी हो , लौट आओ.तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा.

प्रिय, राजेश शर्मा , आप जहाँ कहीं भी हों वापस घर आ जाइए. आपको कोई कुछ नहीं कहेगा. आपके चले जाने से आपकी "डोल्फिन" स्कूल के सभी शिक्षकों को तीन माह से तनख्वाह नहीं मिली है. यही हाल आपके अखबार "नेशनल लुक' और  कथित चैनल " हिंदुस्तान" का भी है. आपकी दोनों फ़िल्में भी आपके चले जाने के कारण अटक गयी हैं. देखिये  जो  हो गया सो हो गया, मैं तो शुरू से आपसे कह रहा था की आप उन लोगों के चक्कर में पड़ गए हैं जिन्होंने प्रेस क्लब को भी बर्बाद करके रखा है.
ये लोग सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं. आपको मेरी बात समझ में नहीं आयी. आप अकेले भी नहीं गए हैं, पूरा परिवार साथ ले गए हैं. आपको सिर्फ अपने बच्चों की चिंता है, उन हज़ारों बच्चों की भी तो सोचिये, जिन्हें पहली से बारहवीं तक पढ़ाने के लिए पूरे छत्तीसगढ़ से आपने अस्सी-अस्सी हज़ार रुपये उनके पालकों से ले लिए हैं. कुछ बच्चों की तो परीक्षाएं सर पर हैं.   राजेश जी, आपको पता है आप कब से गायब हो? आठ मार्च को बेबीलोन होटल में  "महतारी' फिल्म के एक प्रोग्राम से आप गायब हैं. ९ मार्च से आपको सब ढूंढ रहे हैं.  आपके पाँचों नंबर बंद बता रहे हैं. आप तो भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी कलाकारों के लिए कुछ नया करने वाले थे. अब क्या हुआ? सुना है की अपनी  हीरोइन के भाई से ही आप अपनी फिल्म का निर्देशन भी करवा रहे हैं. आपकी डोल्फिन स्कूल को लेकर तरह तरह की बातें हो रही हैं. अकेले बेमेतरा में ३१२ छात्र आपके शिकार हुए हैं. रायगढ़ में भी यही हालात हैं. आपके अखबार का सिर्फ सिटी एडिशन छप रहा है. सम्पादक  प्रशांत शर्मा ने भी आना जाना बंद कर दिया है. आपने उन्हें मना  किया है या बात  कुछ और है? कोई कुछ बताने को तैयार ही नहीं है. अनिल पुसदकर से आप लगातार संपर्क में हैं. आपकी मदद  के लिए वो पूरी तरह से तैयार हैं. अब तो उनकी भूमिका पर भी संदेह होने लगा है.  सुनने में तो ये भी आ रहा है की बेमेतरा की स्कूल आपने भाजपा नेता जागेश्वर साहू के नाम कर दी है. गायत्री नगर वाली स्कूल भी आप  अमित अग्रवाल के नाम पर कर  रहे हैं,   अमित कौन? याद आया? अरे आपका मकान मालिक.. जहाँ से हिन्दुस्तान की ख़बरें प्रसारित हो रही हैं. ५ माह का किराया बचा है वहां.. कुछ याद आया आपको?
आप " शक्तिमान" को बुलाओ ना? वो खाली फ़ोकट बैठे गूफी पेंटल को याद करो, जिसने आपके पैसे से भोजपुरी फिल्मों के निर्देशन में संघर्ष करने के लिए अपना वीडिओ प्रोफाइल बना लिया.   शकुनी मामा को कुछ गणित तो करने दो..
पुलिस में रिपोर्ट के डर से बनायी गयी आपकी "सेल्फ" चेक वाली स्कीम भी फेल हो गयी है. यूनियन बैंक (समता कालोनी), स्टेट बैंक ( अग्रसेन चौक) , अर्बन मर्केंटाइल ( जय स्तम्भ चौक) और स्टेट बैंक ( इंजीनियरिंग कोलेज) में आपका बैलेंस निल दिखा रहा है.   बातें बहुत सारी  हैं... पर जाने भी दो यारों ........ 

21 February 2011

छत्तीसगढ़ी फ़िल्में बनाम वेश्यावृत्ति का रास्ता

इस हेडिंग पर फिल्म बनाने वालों को आपत्ति हो सकती है , लेकिन अब ईमानदारी से उन्हें ये बात स्वीकार कर लेनी चाहिए की हाँ कुछ लोग ऐसा कर तो रहे रहे हैं . मैं उन्ही से सीधे पूछता हूँ की दो निर्माताओ को छोड़कर कितनों का पैसा वसूल हुआ है. फिर भी क्यों बन रही है फ़िल्में? किसका पैसा लग रहा है? हाँ वेश्यावृत्ति भी बुरी बात नहीं है. वही करो न . फिल्मों में काम करके अपना रेट बढाकर भी करो. इसमें भी बुराई नहीं है, लेकिन एक बार उन लोगों के बारे में भी सोच लो जिनका घर सिर्फ फिल्मों और एल्बम  से चल रहा है. एक पुलिस अधिकारी तो अपनी नौकरी दांव पर लगाकर यही से अपना घर चला रहा है. मुझे उन औरतों और लड़कियों से शिकायत नहीं है जो वेश्यावृत्ति भी कर रही हैं और फ़िल्में भी. मुझे आपत्ति है तो उन निर्माताओं से लड़कियों को सिर्फ इसी शर्त पर काम दे रहे हैं की ये भी करना पड़ेगा. कितना पैसा दे रहे हैं फिल्म के  निर्माता अपने कलाकारों को?  पैसा कम मिलता है इसीलिये तो करा रहे हैं वेश्यावृत्ति. उनका कोइ दोष थोड़े ही है. कौन बताएगा लोगों को की दो निर्माता सिर्फ कुछ वन विभाग और कुछ ऐय्याश दोस्तों से पैसा लेकर वेश्यावृत्ति पहले कराते हैं और फिल्मों में काम बाद में देते हैं. बाद में पैसा ख़त्म होने के बाद वो वेश्यावृत्ति में फिर से उतर जाती हैं तो उनकी क्या गलती है. गिरफ्त में आये फिल्म अभिनेत्रियों से कडाई से पूछताछ करनी चाहिए की वो सिर्फ अपना घर चलाने के लिए ऐसा कर रहीं थीं या किसी ने उन्हें प्रेरित किया था? वेश्याएं पकड़ी गयीं हैं तो दलालों का भी तो खुलासा होना चाहिए. मैं आज इसे तथ्य को लेकर सचित्र आलेख आप लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने वाला हूँ.  कल जो वेश्या पकड़ी गयी है उसने प्रेम चंद्राकर की फिल्म "मया दे दे मयारू" में छत्तीसगढ़ के सुपर स्टार कहे जाने वाले अनुज शर्मा की माँ का किरदार निभाया था. उसे अपनी नहीं तो अपने बेटे की लाज तो रखनी चाहिए थी. ले दे कर कुछ गंभीर लोग फिल्म बनाते हैं, इंडस्ट्री थोडा सांस लेने लगती है और जमीन दलाल, वाहन खरीद -बिक्री और विशुद्ध रूप से मुंबई से रायपुर तक लड़कियां सप्लाई करने वाले अपनी दूकान सजा लेते हैं .  ऐसे लोगों के साथ गला मिलाने को तैयार रहते हैं एक अखबार और स्कूल के मालिक भी. नहीं तो ये क्या बात हुई की फिल्म की हीरोइन के भाई को ही उन्हें निर्देशक चुनना पड़  गया. करनी इनकी होती है और सजा भुगतते हैं वो लोग जो खून पसीना एक करके या हिन्दी फिल्मों की कॉपी करके ही फिल्म बनाने वाले. ऐसे में फिर ताला लगेगा फिल्म उद्योग में. जब से छत्तीसगढ़ में "मोर छईहां भुइयां" रिलीज हुई है तब से आज तक कई हीरोइनें ऐसे ही आरोपों से घिरती रही हैं. ऐसा ही चलता रहा तो भगवान ही मालिक है छोलिवूड का. 

06 February 2011

नपुंसक हैं रायपुर के पत्रकार?

सांठगांठ से चल रही छत्तीसगढ़ सरकार ने रायपुर के पत्रकारों को क्या इतना उपकृत कर दिया है कि वे दो पत्रकारों की हत्या के मामले में चुप्प  बैठ गये हैं. मौत इतनी सस्ती हो गयी है कि कोई आपको घूरकर देखे तो उसकी " सुपारी" देकर आप उसे मौत के घाट उतार सकते हैं.सरकार कुछ नहीं करेगी. उपकृत पत्रकार शायद ये समझ बैठे हैं कि सरकार की जी हुजूरी उनके लिए "अमृत" का काम कर देगी. छोटे-छोटे गाँव के पत्रकारों  ने अपने स्तर पर अपने इलाकों में "बंद" भी किया और धरना प्रदर्शन भी , लेकिन वाह रे  रायपुर के पत्रकार..मुख्यमंत्री बुरा ना मान जाएँ इसीलिये "रायपुर-बंद" से कतराते रहे पत्रकार नेता. और तो और अब इन पत्रकारों से अखबार मालिक पल्ला झाड़ते भी दिख रहे हैं. रायपुर और बिलासपुर को राजधानी और न्यायधानी का दर्जा है, लेकिन यहीं के पत्रकार पांच सालों से अपने चुनाव नहीं करवा पा रहे है? अपनी दुकानदारी चलाने वाले प्रेस क्लब से हटना ही नहीं चाहते और नपुंसकता की  चादर ओढ़े बैठे रायपुर के पत्रकार कुछ कर नहीं पा रहे हैं. ऐसे में क्या ये सवाल जायज़ नहीं है कि नपुंसक हो गये हैं रायपुर के पत्रकार?
बिलासपुर के पत्रकार सुशील पाठक की हत्या पत्रकारिता के कारण नहीं हुई, लेकिन छूरा का पत्रकार उमेश राजपूत तो आखिरी समय में भी हाथ में कलम लिए हुए था. खबर लिखते -लिखते ही मारा गया उमेश. खून से सनी उसकी पेन आज भी छूरा थाने में ज़ब्त है. जो हाल रायपुर का है वही हाल बिलासपुर का भी है . रायपुर प्रेस क्लब  में अनिल पुसदकर कुण्डली जमाकर बैठ गये हैं तो बिलासपुर में शशि कोन्हेर का कब्ज़ा है. शराब और ज़मीन माफियाओं के संरक्षण में  ये लोग अपनी औकात भूल गये हैं. बिलासपुर में सुशील पाठक की हत्या का उतना विरोध नहीं  हुआ जितना रायपुर के आसपास उमेश की हत्या का. स्वर्गीय सुशील भी ज़मीन से जुड़ गये थे, वो प्रेस क्लब बिलासपुर  के  उपाध्यक्ष भी थे, लेकिन बदनामी के डर से प्रेस क्लब ने उपाध्यक्ष वाली बात शुरू से ही दबाये रखी. बिलासपुर में तो आग लग जानी चाहिए थी लेकिन पत्रकार खुद खुन्नस में थे, सुशील पाठक दरअसल शशि कोन्हेर के लिए काम करता था, सामने सुशील था और पीछे का पूरा खेल शशि कोन्हेर खेल रहे थे. बिलासपुर के पुलिस अधीक्षक जयंत थोराट  को मेरे सामने कुछ पत्रकारों ने ये बात बतायी थी. पत्रकरिता की आड़ में ज़मीन का काम करना गुनाह नहीं है. रायपुर के कई पत्रकार तो एक मंत्री के निर्देशन में सोसायटी बनाकर ये काम कर रहे हैं. एक पत्रकार तो इसी कारण अपना पद नहीं छोड़ रहा है, पद का दुरूपयोग हो रहा है और मौन हैं रायपुर के पत्रकार.
जिस दिन उमेश की हत्या हुई उस दिन छुरा बंद रहा. बाद में छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन ने देवभोग , मैनपुर , गरियाबंद , पांडुका  और फिंगेश्वर में बंद और धरना प्रदर्शन का आयोजन करवाया . आज राजिम और नवापारा भी बंद रहेगा. पुलिस पर इसका दबाव तो बना, आखिरकार चार टीम बनानी पड़ी पुलिस को. रायपुर के कई क्राइम  एक्सपर्ट्स ने भी छूरा थाने जाकर संदेहियों से पूछताछ की और दिशा निर्देश दिए. बिलासपुर में ऐसा कुछ नहीं हुआ. तभी तो बिलासपुर के प्रेस क्लब के अध्यक्ष शशि कोन्हेर आठ-दस पत्रकारों को लेकर रायपुर आ गये और धरना प्रदर्शन रायपुर में ही किया गया. ये प्रदर्शन बिलासपुर में होता तो बेहतर होता , लेकिन शशि कोन्हेर को पता था कि बिलासपुर में उनकी बखत क्या है?
अब सवाल ये उठता है कि पत्रकारों की इस आपसी राजनीति का शिकार आम पत्रकार क्यों हो? दरअसल धरना - प्रदर्शन करने का काम प्रेस क्लब का है नहीं. आपको यकीन ना हो तो प्रेस - क्लब का संविधान  पढ़ लीजिये . ये काम श्रमजीवी पत्रकार संघ का है. रायपुर के कुछ अखबार मालिकों ने अपने दलालों  को वहां सक्रिय किया और यही कारण है कि श्रमजीवी पत्रकार संघ के ना चुनाव हो रहे ना अखबार मालिकों के खिलाफ कोई आवाज़ उठा रहा है. जब पत्रकारों के खिलाफ शोषण बढ़ा तो रायपुर के कुछ पत्रकारों ने अलग अलग संघ बनाए लेकिन काम कुछ नहीं किया.  बस चन्दा - वसूली होती रही और अखबार मालिक खुश होते रहे. एक संघ के प्रदेश अध्यक्ष को तो खबर लिखना भी नहीं आता . शायद यही कारण था कि नारायण शर्मा और उनकी टीम को लोगों ने हाथों हाथ लिया. रायपुर  प्रेस क्लब और भाजपा में कोई ख़ास अंतर नहीं है. दरअसल प्रेस क्लब की जगह, ज़मीन और सुविधाएँ  श्रमजीवी पत्रकार संघ के नाम से अलोटेड है. नगर निगम के दस्तावेज़ इसके गवाह हैं. श्रमजीवी पत्रकार संघ तो आर. एस. एस. की  तरह काम करता है. प्रेस क्लब इसकी इकाई मात्र है. प्रेस क्लब सिर्फ पत्रकारों के मनोरंजन और पत्रकार वार्ताओं के लिए अधिकृत है. चार साल से ना तो पत्रकारों के लिए ना तो कोई खेल कूद का आयोजन हुआ. ना कोई और गतिविधि, हाँ १५ अगस्त और २६ जनवरी को पिकनिक का पूरा ध्यान रखा, मौके का फायदा उठाकर  अखबार मालिकों ने ऐसी चकरी चलाई कि संघ का अस्तित्व ही ख़त्म हो गया. अब कौन आवाज़ उठाएगा उन अखबार मालिकों के खिलाफ जिन्होंने सस्ते दामों पर ज़मीन तो अखबार चलाने के नाम पर ली लेकिन वहां कुछ और धंधे स्थापित हैं.  एक पत्रकार ने तो प्रेस कोंम्प्लेक्स में  संघ की ज़मीन पर ही अपना भवन तान दिया है. कौन बोलेगा उसके खिलाफ ? कौन ज्ञापन देगा मुख्यमंत्री को?
दो पत्रकारों की हत्या के विरोध का सिलसिला सब जगह चला पर जब रायपुर बंद करने की  बात सामने आयी तब सब खिसकने लगे. सब के दिमाग में यही था कि मुख्यमंत्री बुरा मान जायेंगे तो उनकी दुकानदारी प्रभावित हो सकती है. आखिर में कुछ लोग सामने आ ही गये रायपुर बंद कराने के लिए. विरोध करना प्रजातंत्र का एक हिस्सा है , और चौथे  स्तम्भ की ऐसी दुर्दशा... ईश्वर जाने क्या होगा आने वाली पीढ़ी का? हम क्या नज़रें मिला पाएंगे उनसे? क्या शिक्षा देंगे उनको? यही? कि अपना घर देखो. बस . कोई मरे या जिए . अपनी सेटिंग नहीं बिगडनी चाहिए..
बहरहाल हत्या एक ग्रामीण पत्रकार की  हुई है इसीलिये राजधानी के पत्रकारों ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. पर वे भूल गये की दमन की शुरुआत हो चुकी है. ग्रामीण पत्रकारों की  मजबूरी कौन समझेगा? वो जो अपना रक्षाधन जमा कराते है उसी का ब्याज उन्हें तनख्वाह के रूप में वापस किया जाता है. आज भी ग्रामीण पत्रकारों को सात सौ से ज्यादा तनख्वाह नहीं मिलती. (ये बड़े घरानेदार अख़बारों  की  बात है. छोटे और मंझोले अखबारों की  बात तो छोड़ ही दें) अपनी दूकान, ठेकेदारी या विज्ञापन के कमीशन से वो अपना घर चलाने को मजबूर हैं. पर राजधानी के पत्रकारों के साथ तो ऐसा नहीं है. नए नए अखबार तो अच्छे पॅकेज दे रहे हैं. फिर क्यों डर लगता है उन्हें. क्यों वरिष्ठ पत्रकारों ने प्रेस क्लब आना  जाना छोड़ दिया. धरने में भी सिर्फ दो वरिष्ठ दिखे. अब हालत बिगड़ेंगे. नयी पीढ़ी के पत्रकार अब बर्दाश्त नहीं करेंगे. कभी भी कोई बड़ी घटना प्रेस क्लब में हो जायेगी तब इन्हें संरक्षण देने वालों को समझ में आएगा कि नपुंसक नहीं थे  रायपुर के पत्रकार.



25 January 2011

पत्रकार की हत्या और पत्रकारों की राजनीति

 
 

क्या ये बात सच है  कि जैसा राजा होता है प्रजा भी वैसी ही होती चली जाती है. एक पत्रकार की हत्या ने फिर ये सवाल खड़ा कर दिया है. छुरा के पत्रकार उमेश राजपूत की हत्या ने एक और सवाल दागा है कि पत्रकारिता क्यों और किसके लिए? छुरा कि राजधानी से दूरी मात्र अस्सी  किलोमीटर है. जब मैं अपने वरिष्ठ पत्रकार साथी नारायण शर्मा और साथी संदीप पुराणिक  के साथ कल सुबह सात बजे निकले तो रास्ते भर  हम यही मनाते रहे कि किसी भी हालत में हमें अन्येष्टि का भागीदार बनना ही है.  ऐसे शहीद पत्रकार को कांधा देना हम अपनी खुशनसीबी समझ रहे थे.
जब हम छुरा पहुंचे तो छुरा पूरी तरह से बंद था. दो तीन लोगों से पूछताछ की तो पता चला कि उमेश का शव पोस्टमार्टम के बाद उसके गाँव रवाना कर दिया गया है.  छुरा से १२ किलोमीटर खरखरा से मुड़कर हम १४ किलोमीटर और आगे उमेश के गृहग्राम  हीराबतर  पहुंचे तो घर से शवयात्रा बाहर निकाली जा रही थी. घर में कोहराम मचा हुआ था. हम तो किसी को जानते भी नहीं थे. भीड़ में सोचा रायपुर से और कोई नहीं तो कम से कम नई दुनिया से तो आया ही होगा. थोड़ी ही देर में गरियाबंद , मैनपुर , देवभोग और आसपास के कुछ परिचित चेहरे दिखने लगे. उमेश के शव को कन्धा देकर दूर जंगल तक हम गाँव वालों के साथ रहे. जंगल में एक तालाब के समीप चार कच्ची लकड़ियों के सहारे पक्की और जलाऊ लकड़ियों का चबूतरा बनाकर अर्थी रखी गयी. हम सारे पत्रकार साथी उन लोगों की मदद करते रहे. डेढ़ घंटे बाद सब वापस उमेश के घर लौटे. पत्रकारों ने  वहीँ मीटिंग कर आगे की रणनीति तय की. सारे साथी छुरा थाने पहुंचे और गरियाबंद के पुलिस अधीक्षक कमल लोचन कश्यप  को सूचना दी गयी.  जब एस. पी. को आने देरी हुई तो छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष  नारायण शर्मा के नेतृत्व में हमने थाने में ही धरना और नारेबाजी शुरू कर दी. एस. पी. के आते ही पत्रकार टूट पड़े उन पर. सबने तीन सूत्रीय मांग उन्हें सुनाई. काफी ना नुकुर के बाद छुरा के थानेदार को उन्होंने लाइन अटैच कर दिया और आरोपियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार कर लेने की  बात कही. संदिग्ध महिला सरोज मिश्र और एक चिकित्सक को थाने में हिरासत  में रखे होने की जानकारी भी दी गयी.  यहाँ से साथी नारायण शर्मा और संदीप पुराणिक वापस आ गये और मुझे कुछ जिम्मेदारियां देकर गरियाबंद रवाना कर दिया.
आज दोपहर जब मैं रायपुर पहुंचा और अखबारों के इस मामले में कवरेज  देखा तो जान जल गयी. नई दुनिया ने छापा है कि स्थानीय संपादक रवि भोई, महाप्रबंधक  मनोज त्रिवेदी , प्रसार प्रबंधक केयूर तलाटे और प्रांतीय प्रमुख घनश्याम गुप्ता  भी अंत्येष्टि में शामिल हुए.  ये झूठ तो मैं पचा भी गया. दूसरा मामला जो मैं हजम नहीं कर पाया वो ये है कि नई दनिया ने मृतक उमेश को अंशकालिक पत्रकार बताया है. अब मुझे कोई बताएगा कि ये अंशकालिक और पूर्णकालिक क्या होता है. आज ही बताना ज़रूरी था कि उमेश अंशकालिक पत्रकार था. अपना रक्षा धन जमा करके बिना तनख्वाह के और अपनी जान हथेली पर रखकर पत्रकारिता करने वाले अंशकालिक?  कौन है पूर्णकालिक?  रवि भोई ? जो छत्तीसगढ़ के मुखिया की जी हुजूरी करता फिरता है. उन्ही से सीखा होगा ना कि अपने अधीनस्थ की अन्येष्टि में जाए बिना विज्ञप्ति जारी कर दो. अरे मेरे भाई अगर अन्येष्टि में नहीं गये तो क्या हुआ परिवार वालों को सांत्वना तो दे आते. और अगर सांत्वना भी दी तो विज्ञप्ति में लिखवाना  था कि नई दुनिया परिवार ने मृतक उमेश राजपूत के परिजनों से उसके गृह ग्राम जाकर भेंट की. ये सब भी अब मुझे ही बताना पड़ेगा. इधर प्रेस क्लब रायपुर का हाल देखिये . रोनी सी शकल लेकर बैठ गये अनिल पुसदकर और शोक सभा ले ली. चूँकि महासचिव ने भी इस्तीफ़ा दे दिया है इसीलिये मैं तो उन्हें अध्यक्ष मानता ही  नहीं. वो मानते हों तो एक आमसभा भी बुला लें. खैर..बाजु में बैठा लिया बिलासपुर के अपने भाई शशि कोन्हेर को.  भाई इसीलिये लिखा क्योंकि दोनों ने बेशर्मी से चार साल से चुनाव नहीं करवाए हैं. हो गयी शोकसभा . विज्ञप्ति भी जारी हो गयी. एक और पत्रकार संघ ने भी सब के नाम डालकर विज्ञप्ति जारी की. उनके अध्यक्ष को लिखना  पढना आता नहीं इसीलिये शंकर पाण्डेय  को भी साथ ले लिया है. अकेला चना  क्या भाड़ फोड़ेगा? अब  एक  नजर इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर भी डाल लें. इस घटनाक्रम पर पत्रकार की  हत्या के स्क्रोल से लेकर अंत्येष्टि तक सिर्फ जी २४ घंटे छत्तीसगढ़ ने नज़र रखी. बाकी चैनलों ने  तो पट्टी तक चलाना उचित नहीं समझा. इस पूरी खबर पर जी २४ के गरियाबंद संवाददाता फारुक मेमन और उनके कैमरा पर्सन  फर्हाज़ जमे रहे. बाद में सहारा ने भी कैमेरामेन  को वहां भेजा. आज न्यूज़ एक्स और पी-  ७  ने इस मामले को कवर किया है.. मैं नारायण शर्मा या अपनी बडाई नहीं कर रहा. जिसके ऊपर ज़िम्मेदारी है उसे तो आगे आना ही होगा लेकिन बाकी लोग क्या सरकार की  तरह राजधानी में ही बैठकर  सारी समस्याओं  का हल ढूंढ लेंगे. इस संजीदा मामले में पत्रकारों के लिए लड़ने वालों की  बात करने वालों की ये अदा मुझे कुछ जंची नहीं.  अब तो पत्रकरों को सोचना ही पड़ेगा कि हम आखिर पत्रकारिता में आये क्यों हैं? और किसके लिए कर रहे हैं पत्रकारिता ? मुझे जो चीज़ें  दिल से बुरी लगीं मैंने लिख दिया . आपको अगर ये सब अच्छा लगा तो प्लीज़......dont comment here ...

23 January 2011

एक और पत्रकार की हत्या..मीडिया और सरकार आमने सामने

छुरा गाँव के एक पत्रकार उमेश राजपूत की आज देसी कट्टे से गोली मारकर हत्या कर दी गयी. कुछ दिन पहले ही उमेश ने छुरा थाने में इस आशय की शिकायत दर्ज कराई थी की गाँव की एक महिला स्वास्थ्य अधिकारी ने एक खबर को लेकर उसे देख लेने की धमकी दी है. खबर ये थी की छुरा में आयोजित एक सरकारी स्वास्थ्य शिविर में गलत उपचार के कारण एक मरीज की जान पर बन आयी थी. उमेश ने अपने अखबार नयी दुनिया में इसे प्रमुखता से भेजा और खबर छपी भी. उस नेत्र सहायिका ने कुछ दिन बाद उमेश के खिलाफ छेड़छाड़ की शिकायत भी अपने बचाव के लिए दर्ज करा दी थी, नतीजा सबके सामने है. आज उमेश हमारे बीच नहीं है. मुझे अब लगने लगा है की सरकार पत्रकारों को उकसा रही है. एक महिला स्वास्थ्य अधिकारी की इतनी बखत हो गयी की वो सुपारी देने लगी. पूरे मामले की लीपा पोती शुरू हो गयी है. कल पुलिस बोलेगी की ये आपसी रंजिश का मामला था. शिविर वाली खबर से उसका कोई लेना देना नहीं है. कल सुबह मैं भी छुरा जा रहा हूँ. अब देखते हैं.

चोर-डकैतों के चंगुल में है "छोलिवुड"

विश्वसनीय छत्तीसगढ़ में ऐसे -ऐसे अविश्वसनीय प्रयोग हो रहे हैं कि समझ नहीं आ रहा है अपना माथा कहाँ जाकर टकराऊं.....आपको जानकार आश्चर्य होगा कि पचासों  फ़िल्में बना लेने का दावा करने वाले छोलिवुड के पास आज भी अच्छे स्क्रिप्ट राइटर नहीं हैं. स्क्रिप्ट राइटर वही है जो हिंदी फिल्मों को  देखकर उसे छत्तीसगढ़ी में टाइप कर दे. चलिए पहले उन फिल्मों पर नज़र डाल लीजिये जिन्हें देखकर छत्तीसगढ़ी फ़िल्में टाइप हुईं हैं.  सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फिल्म "मया" हिंदी फिल्म "स्वर्ग से सुन्दर " की कॉपी है. मनोज वर्मा की छत्तीसगढ़ी फिल्म " महूँ दीवाना तहूँ दीवानी "  हिंदी फिल्म " आदमी खिलौना है" पर आधारित है. सुन्दरानी फिल्म्स की  "हीरो नंबर ०१ " हिंदी फिल्म "स्वर्ग" देख कर  लिखी गयी है. सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फिल्म "टूरा रिक्शा वाला " भोजपुरी फिल्म " निरौआ रिक्शा वाला" का रि - मेक  है.  "टूरी नंबर ०१ " हिन्दी फिल्म " घर हो तो ऐसा " से पूरी तरह से प्रभावित है. इरा फिल्म की  छत्तीसगढ़ी फिल्म "बंधना" हिंदी फिल्म "बंधन" के कन्धों पर रखी गयी है.
अब फिल्मों के प्लाट की  बात छोड़ दें तो आजकल इन्ही फिल्मों के गाने भी चुरा लिए जा रहे हैं.  गायक से अचानक संगीतकार बन गये लोग तो छत्तीसगढ़ के पुराने गानों  को अपना बताकर धकियाये पड़े हैं. अब सवाल ये उठता है कि इन पर अंकुश कौन और क्यों लगाए. मूलतः छत्तीसगढ़ी फ़िल्में स्वान्तः सुखाय के लिए बनी और बनायी जा रही है. क्या कारण है कि फ़िल्में चलने का नाम नहीं ले रही हैं.एक दो फिल्मों को छोड़ दें तो बाकी को अपने निर्माण की लागत तक नहीं मिली है. ऐसे में क्यों और किसके बन रही हैं छत्तीसगढ़ी फ़िल्में? सरकार को अपनी पीठ थपथपाने और अपने ही लोगों को ठीक करने से फुर्सत नहीं है. तभी तो सब्सीडी पर सरकार ने आज तक विचार ही नहीं किया? मनोरंजन कर मुक्त करके आम मतदाताओं को लाभ पहुंचाकर निर्माताओं की कमर तोड़ने का काम ही किया है सरकार ने. मैं सब निर्माताओं कि तारीफ़ नहीं करा रहा. बाकी लोग तो पूरे तोड़ने लायक हैं. पर जो लोग सच में अच्छा काम कर रहे हैं. जिनकी फ़िल्में पचास दिन पूरे कर रही है है, जिसमें यहाँ की परम्पराएं सन्निहित हैं. ऐसी फिल्मों पर तो गौर करना ही चाहिए.  अब एक मजेदार और चौंकाने वाली बात जान लीजिये. टॉकीज़ वालों ने हद्द मचा कर रखी है. हिंदी फिल्मों के लिए टॉकीज़ का साप्ताहिक किराया पचास हज़ार है जबकि यही लोग छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए सत्तर हज़ार साप्ताहिक किराया वसूल रहे हैं. एक हफ्ते बाद ये लोग हिंदी फिल्म के लोगों से शेयर की  बात कर लेते हैं और छत्तीसगढ़ी फिल्म वालों से अपनी फिल्म उतार लेने को कह देते हैं.
  • अब इन फिल्म वालों के लिए लड़े तो लड़े कौन? आपस की लड़ाई से इन्हें फुर्सत मिले तो कुछ सोचें भी. संस्कृति  विभाग ने अपने कुछ ख़ास लोगों को रोटियां डाल दी हैं. बस वो गरियाते रहते हैं. कभी कभी दया भी आती है इन लोगों पर.. कुछ निर्माता तो अपनी ऐय्याशी के लिए भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों को माध्यम बनाये हुए हैं. अब कलाकारों और निर्माताओं को मिल बैठकर अपनी रणनीति तय करनी ही होगी.  नहीं तो चार बार झटका खा चुके छोलिवुड को बचने कोई नहीं आने वाला. छोटी टेप पर बड़े परदे की  फ़िल्में बन तो रही हैं पर यही हाल रहा तो सबको फिर छोटे परदे पर लौट जाना होगा.