12 May 2014

"मदर्स डे" पर एक साथ तीन साड़ियां पैक हुईं एक माँ , दूसरी सासू माँ , तीसरी खुद के लिये

"मदर्स डे" पर साड़ी की दुकानों में खूब भीड़ रही। रविवार होने के कारण गरीबी रेखा के कार्ड होल्डर कर्मचारी सन्डे मनाने के कारण दुकान नहीं आये।  मालिकों ने ही मोर्चा सम्हाला हुआ था। एक से एक किस्से देखने को मिले। एक पति अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आया।  उसकी पत्नी ने भी तीन साड़ियां पसन्द की। पति ने कहा कि हम मम्मी के लिये एक साड़ी लेने आये थे।  तीन क्यों ? पत्नी का जवाब सुनकर दुकान का मालिक भी अपनी हंसी रोक नहीं पाया। पत्नी ने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा कि आपकी माँ क्या मेरी माँ नहीं हैं। एक आपकी मम्मी के लिये , एक मेरी मम्मी के लिये और तीसरी आपके बच्चों की मम्मी के लिये। पति ने आसपास ए. टी. एम. कहां है पूछा और पसीना पोछते हुए बाहर निकल गया।  
        मुझे लगा "आज की बात " के लिए यह अच्छा विषय है।  दुकानदार से दोस्ती बढ़ा ली और उसे कुरेदना शूरू किया। उसके बाद बाकी लोगों को साड़ी दिखाते दिखाते एक के बाद एक किस्सा बयान किया। दुकानदार का कहना था कि आज सुबह से ऐसा ही हो रहा है। जो भी आ रहा है तीन साड़ी ले जा रहा है। तुक्का वही -एक आपकी मम्मी के लिये , एक मेरी मम्मी के लिये और तीसरी आपके बच्चों की मम्मी के लिये। इसी बीच एक और जोड़ा आ गया।  दुकानदार ने रेंज पूछी तो पत्नी ने बोला - पांच से छह हज़ार तक की चलेगी।  मैं और दुकानदार उसके पति की तरफ़ देख रहे थे। पति ने भावुक होकर कहा कि माँ के लिये  पांच छह हज़ार हज़ार की कोई बात नहीं है।  पत्नी बोली - माँ के लिए खरीद रखी है।  मेरे लिए चाहिए।  हम दोनों पति को ही देख रहे थे। इतना असहाय पुरुष मुझसे देखा नहीं जा रहा था।  मैं बाहर आ गया। 
         तभी एक सास,  बहु और बेटा दुकान में दाखिल हुए। सास तो बहुत ही भली लग रहीं थीं। दुकानदार ने जो साड़ियां खुली रखीं थी, उसे फ़िर से उसकी ख़ासियत के साथ दिखाना शुरु किया।  बहु को कुछ समझ नहीं आ रहा था।  दुकानदार को जब वह भीड़ होने के बावजूद सताने लगी तो दुकानदार ने उसे खुद अपनी पसन्द की साड़ी निकाल लेने को कहा।  उसने भी पांच हज़ार की साड़ियां निकालना शुरु कर दिया। इसी बात पर पति पत्नी में  विवाद हुआ और वो जाने लगे।  दुकानदार ने कहा कि कुछ सस्ती दिखाऊं ? बहु तुनक गयी और सास का हाथ पकड़कर बाहर ले गयी। पीछे पीछे पति भी चला गया। 
        यह सब नसीब हुआ मेरी एक बहन रानू के कारण।  आज उसने मुझे घर बुलाया और मेरे हाथ में एक हज़ार का नोट पकड़ाकर मेरे कान में कुछ कहा।  रानू की मम्मी के लिए साड़ी लाना अब मेरी जिम्मेदारी थी।  शादीशुदा होने के कारण महिलाओं की आदतें जानता हूँ।  सो ……हमने तय किया कि दोनों भाई बहन जाकर साड़ी खरीदेंगे।  जिस दुकान में यह सब हो रहा था हम वहां से खिसक लिये।  मम्मी के लिए अच्छी सी साड़ी पसन्द की और उन्हें "surprize-gift" दे आये।  माँ तो माँ होती है।  साड़ी देखकर माँ के अन्दर जो खुशी देखी उसका बयान नहीं कर सकता। विश्व की हर माँ को मेरा वंदन। happy mothers day माँ।

09 May 2014

लूटो-खसूटो अभियान का एक हिस्सा "मीडिया" भी

आजकल का सीधा सा फंडा है। कुछ भी गलत करना हो तो या तो एक अखबार शुरु कर दो या एक चैनल शुरु कर लो। अगर यह भी नहीं कर सकते तो किसी भी एक चैनल की माईक आई डी खरीद कर ले आओ ......या किसी मासिक , पाक्षिक , साप्ताहिक या दैनिक अख़बार का आई कार्ड बनवा लो।   पुलिस दस्तक दे तो धौंस पत्रकारिता की। हाल ही में जितने भी चैनल या अख़बार अस्तित्व में आये हैं सबका एक बत्ती कनेक्शन है। पैसा, पैसा और सिर्फ पैसा। यह लोग पत्रकारिता को तो कलुषित कर ही रहे हैं साथ ही आने वाली पीढ़ी को एक गलत रास्ता भी दिखा रहे हैं। एक खबर चौंका देने वाली है। हर चिट फण्ड कम्पनी ने एक- एक पत्रकार को अपने साथ जोड़ लिया है। चिट फण्ड कम्पनी में विवाद होने पर यही पत्रकार बीच बचाव के लिये बुलाये जाते हैं। ऐसे पत्रकारों का ख़बरों से कोई वास्ता है ही नहीं। यह लोग सिर्फ़ "लायज़निंग" के लिए दिन भर घूमते हैं। हाल ही में राजधानी रायपुर से आम जनता के करोड़ों रूपए लेकर भागने वाली कंपनी भी एक न्यूज़ चैनल द्वारा ही संचालित की जा रही थी | क्या आप जानते है छत्तीसगढ़ में  चिट फण्ड कम्पनियों  का जनक भी राजधानी से निकलने वाला एक प्रतिष्ठित अखबार ही है

यही वजह है कि चिट फण्ड कम्पनियां लगातार अपना जाल तेज़ी से फैला रही हैं। पुलिस को भी सारे ठिकानों का पता है लेकिन कार्यवाही कुछ नहीं। आम आदमी चिट फण्ड कम्पनियों के मकड़जाल में फंसकर अपने पसीने की जमा पूंजी को इनके प्रलोभन में आ कर लुटा रहा है। अकेले रायपुर में ही पचास से ज़्यादा चिट फण्ड कम्पनी है।  बीच बीच में युवक कांग्रेस और कुछ युवा नेता इस मामले को मीडिया में उठाते हैं और फ़िर गायब हो जाते हैं। एक नहीं कई बार ऐसा हुआ है। मीडिया वाले भी जाते हैं।  कुछ कवरेज करके आ जाते हैं तो कुछ सलटारे के लिये रुक जाते हैं। नए नवाड़े पत्रकारों को एक बार पैसे की लत लग गयी तो बस गयी पत्रकारिता चूल्हे में। रोज़ का बस एक ही काम। ऐसी ख़बरें ढूंढो जहाँ से पैसा आये। आम आदमी के लिए कभी नहीं लड़ेंगे ये पत्रकार।  कुछ पत्रकारों ने तो चिट फण्ड कम्पनियों को इतना डराया कि कम्पनियों ने उन्हें पार्टनरशिप का ही न्योता दे डाला। मतलब अब पार्टनरशिप में फलने फूलने लगा चिट फ़ण्ड का धँधा। 

आम लोग आखिर क्यों फंसते हैं इन चिट फण्ड कम्पनियों के जंजाल में ? दुनिया भर के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बैंक हैं जहां वे पैसा जमा करके अच्छा ख़ासा ब्याज भी पा सकते हैं। अब कौन समझाये इनको कि आज तक किसी की नहीं हुईं चिट फण्ड कम्पनियाँ। यह लोग केवल लूटपाट करने ही आते हैं और अपना काम करके निकल भी लेते हैं। पुलिस के पास कई चिट फण्ड कम्पनियों के खिलाफ़ लिखित शिकायतें हैं लेकिन पुलिस के पास वी आई पी ड्यूटी के कारण जांच का समय नहीं हैं।  सब लगे हैं अपनी अपनी रोटियां सेकने में और लोग लुट रहे हैं। राजनीतिक , प्रशासनिक और पत्रकारिता के दबाव मे कौन आगे आये और निजात दिलाये इन चिट फण्ड कम्पनियों से …?

08 May 2014

अमीरों और नेताओं को क्यों नहीं होता "पीलिया"…… ?


एक ही पार्टी को हैट्रिक देना अब महँगा पड़ रहा है छत्तीसगढ़ियों को। पूरा छत्तीसगढ़ पीलिया कि चपेट में है। सरकारी अस्पताल में बेड कम पड़ रहे हैं।  निजी अस्पताल वाले ऐसे मरीज ले ही नहीं रहे।  हैट्रिक से गदगद नेताओं को इसमें भी बतोलेबाजी सूझ रही है। भावना शून्य होते जा रहे हैं नेता। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि अमीरों और नेताओं को क्यों नहीं होता "पीलिया"? सरकार का काम सबको साथ लेकर चलना होता है। यहाँ ऐसा नहीं है।  मंत्रियों और अफसरों के रहवासी इलाकों में साफ़ सफाई दुरुस्त है। राजधानी के नया मंत्रालय में पीलिया पीड़ितों के लिये दस बिस्तर का एक अस्पताल खोल दिया गया है।  आम आदमी से कोई सरोकार ही नहीं है मंत्रियों और अफसरों को। आम आदमी मरता है तो मर जाये इनका क्या ? आम आदमी सुबह शाम की जिजीविषा देखे या प्रशासन से उपहार में मिले पीलिया को। जो मिल जा रहा है खा रहे हैं , जैसा मिल रहा है पी रहे हैं। सरकार से लेकर नगर निगम तक , सब तमाशा देख रहे हैं। अब तो इसी नाम से बंदरबांट करने के लिये सरकार ने बीस करोड भी देने की घोषणा कर दी है। 
स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल और महिला एवं विकास मंत्री रमशिला साहू इस मामले में बुरे फंस गये हैं। पूरे देश को तोता छाप गुड़ाखू की सौगात देने वाले स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल ने आखिर गलत क्या कहा? लोग कुछ भी खाते हैं कुछ भी पीते हैं।  इनमें ऎसे लोग भी शामिल होंगे जो गुड़ाखू भी करते होंगे। शासन प्रशासन इसमें क्या करेगा ? अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। जैसे स्वास्थ्य मंत्री को बिलासपुर जाना आना होता है तो ट्रेन का सहारा ले लेते हैं। उन्हें पता है छत्तीसगढ़ की सड़कों की हालत। उनसे यह नहीं होता की अपने लोक निर्माण मंत्री से कहकर सड़कें दुरुस्त करवा लें। वही सन्देश वह जनता को भी दे बैठे। अगर सब भगवान की मर्जी से होता है तो आप बीच में क्यों आड़े आ रहे हैं।  स्वास्थ्य विभाग नहीं सम्हल रहा तो दे दीजिये इस्तीफ़ा।  भगवान सब देख लेंगे। पीलिया से पूरा छत्तीसगढ़ थर्राया हुआ है और आप चाहते हैं कि मीडिया उनसे झगड़ालू सवाल न करे ? उन्हें गोदी में बिठाये? उनकी आरती उतारे ? गुणगान करे उनका? मीडिया अपना काम कर रहा है और स्वास्थ्य मंत्री को भी अपना काम गंभीरता से करना चाहिए। यह समय उत्तेजना का नहीं, भावुक होकर मरीजों के साथ होने का है। मरीजों को त्वरित उपचार देने का है। 
 महिला एवं विकास मंत्री रमशिला साहू  को भी पता नहीं क्या सूझी ? मीडिया को दानव कह दिया। या तो वे दानव का अर्थ नहीं जानती या सत्ता का  नशा उनके भी सिर चढ गया है।  पता नहीं नेताओं को सुध कब आयेगी। वैसे पीलिया से लड़ने के लिये पार्षद से लेकर महापौर और विधायकों को भी गंभीर होना होगा। यहाँ सबको दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा। सबको साथ मिलकर इस जानलेवा बीमारी से लड़ना होगा।  पीलिया के बारे में जागरूक करने के अलावा अब साफ़ सफाई पर और भी गंभीर होने पड़ेगा। और ध्यान भी रखना होगा कि अमीरों और नेताओं को भी हो सकता है 
 "पीलिया"। इन्डियन मेडिकल एसोसिएशन सहित सब लोग अब आगे आ ही गये हैं।  पैसों की तंगी भी नहीं है।  बस अब ज़रुरत है हौसले और हिम्मत की। 

29 April 2014

बलात्कार……यह शब्द और कृत्य दहला देने वाला है। वैसे तो बलात् होने वाले कार्यों को ही बलात्कार की संज्ञा दी गयी है लेकिन यह कृत्य अमूमन महिलाओं के साथ ही होता आया है और लगातार हो भी रहा है।  इस पर रोक कैसे लगे, बलात्कारियों को कैसे पहचानें और उनकी सज़ा क्या हो ? इस पर कई बार बहस- मुबाहिसे हो चुकीं हैं। अब सवाल यह है कि देश को बलात्कार रहित कैसे बनाएँ ? मुझे व्यक्तिगत रूप से यह लगता है कि बलात्कार एक मानसिक बीमारी है जिसमें शरीर का  इस्तेमाल होता है। किसी महिला को चाहना और उसे न पाने की लालसा में भी आजकल यह कृत्य हो रहा है। महिलायें सुरक्षित कैसे रहें ? यह अब उन्हें सोचना होगा। अंग उघाड़ू कपड़े या अति रुप सज्जा से बचें या इतनी मजबूत रहें कि कोइ उनके साथ ऐसा - वैसा करने की सोच भी न सके। 
बलात्कार की खबर मिलते ही पहले तो मन पसीज जाया करता था। अब तो नक्सली घटना और बलात्कार एक जैसे हो गये हैं। न इसका हल कोई ढूंढना चाहता न इस बारे में कोइ बात करने को तैयार है। नक्सली अपनी मनमर्जी कर रहे हैं और बलात्कारी अपनी। अपना संयम क्यों खोता जा रहा है आदमी।  संतुष्ट क्यों नहीं है आदमी ? बलात्कार भले ही क्षणिक आवेश में हो जाने वाली प्रक्रिया है लेकिन समाज में दोनो की छिछालेदर तो होती ही है। पुरुष भले ही जल्दी सामान्य हो जाये लेकिन महिलाओं के लिये तो यह डूब मारने वाली बात होती है। उठते बैठते उसका दिमाग उलझा रहता है।  खासकर कुंवारी बच्चियां तो सीधे आत्मह्त्या जैसे कदम उठाने को आतुर रहती हैं। ऐसी बच्चियां एकांत ढूंढने लगती और मौन साध लेती हैं। पूरे परिवार में उथल पुथल मच जाती है। मामला छोटे इलाकों का हो तो और भी बात और भी गंभीर हो जाती है। 
बलात्कार के मामले में दोषी कोइ भी हो लेकिन यह एक घृणित कृत्य है और इसकी पाबन्दी पर बात और पहल होनी ही चाहिए। बलात्कार के कुछ मामलों पर युवतियां भी दोषी पायी गयी हैं। समाज उन्हें बख्श देता है। पत्रकार होने के नाते कई मामले मैने भी पढ़े सुने हैं।  एक बात आज तक समझ में नहीं आयी कि युवतियां ऐसा कर कैसे लेतीं हैं ? कुछ तो मजबूरियां रही होंगीं यूँ कोइ बेवफ़ा नहीं होता। पुलिस के पास मैंने कई प्रकरण ऐसे भी देखे हैं जिसमें बच्चा होने के बाद भी बलात्कार की एफ़ आई आर दर्ज हुईं हैं।  अब इसे क्या कहेंगे ? इतनी भोली क्यों होतीं हैं महिलायें कि कोइ भी उन्हें झांसा देकर उसके शरीर से खेल ले। कई मामलों में यह बात भी सामने आई कि युवती ने शादी से इंकार किया तो या तो घमंडी मर्द ने उसका गला घोंट दिया या उसकी आबरु लूट लीं।  किस युग में जी रहे हैं हम ? कुल मिलाकर महिलाओं को "भोग्या" समझना बन्द करना होगा। महिलाओं को भी अपनी हदें पहचाननी होंगी। बलात्कार जैसी घटनाओं से घर , समाज , राज्य और देश सब बदनाम हो रहे हैं। 

23 April 2013

आज से "फ़ीड-सेंटर" भी ......
छत्तीसगढ़ इलेक्ट्रोनिक मीडिया एसोसियेशन के दफ़्तर में आज से "फ़ीड-सेंटर" भी शुरू हो जाएगा। इसके लिए तकनीकी तैयारियां पूर्ण हो चुकी हैं। "फ़ीड-सेंटर" शुरू जाने से अब यहाँ के सदस्य यहीं से अपने चैनल के मुख्यालय को सीधे अपनी खबर का ऑडियो-वीडियो भेज सकेंगे। मेल की सुविधा से स्क्रिप्ट अब तक भेजी ही जा रही थी। चिलचिलाती गर्मी से राहत के लिए यहाँ पहले ही इंतज़ाम कर लिए गए थे। अतिशीघ्र (संभवतः मई सप्ताहांत तक) सदस्यों के परिचय पत्र भी उन्हें सौंप दिए जायेंगे। छत्तीसगढ़ इलेक्ट्रोनिक मीडिया एसोसियेशन के सभी पदाधिकारियों और सदस्यों की सक्रियता से यह सब बिना किसी बाहरी सहयोग के संभव हो पाया। सभी को बधाई।

03 September 2012

                                                संगठन ने चेताया- 
अफसरों की मनमानी रोकें
मंत्रालय में तू-तड़ाक शुरूअब जूतम-पैजर की बारी
छत्तीसगढ़ में चल रही अफसरशाही को लेकर अब संगठन ने भी सरकार को चेता दिया है की अफसरों की मनमानी नहीं रुकी तो यही लोग सरकार को ले डूबेंगे. संगठन के वरिष्ठ पदाधिकारियों को यहाँ (छत्तीसगढ़) दौरे के दौरान अधिकांश कार्यकर्ताओं ने शिकायत की है की जब अफसर मंत्रियों और सांसदों की नहीं सुन रहे हैं तो कार्यकर्ताओं की कौन सुनेगा. इधर बाहर से शांत
दिखने वाले मंत्रालय के भीतर अब उबाल आने लगा है. दो दिन पहले ही मंत्रालय में पदस्थ दो वरिष्ठ सचिव आपस में भीड़ गए. बात इतनी बढ़ी की एक सचिव ने दुसरे सचिव को साफ़ कह दिया की अब तू सिखाएगा कामकाज. दूसरा भी क्यों शांत रहता उसने भी कहना शुरू कर दिया की तेरे जैसों के कारण ही बाहर से सचिव बुलाने पड़ते हैं. तू अपने काम से काम रख. तू-तू की नौबत काफी देर तक रही और बाकी अफसर एक दूसरे का मुंह ताकते रह गए. जिस तरह से मंत्रालय में आये दिन इस तरह की नौबत आ रही है उससे तो लगता है की आने वाले समय में यहाँ जूतम पैजर की नौबत भी ज़रूर आयेगी.
मंत्रालय के आधिकारिक सूत्र बताते हैं की मंत्रालय के भीतर सचिव स्तर पर ही लोग आपस में खुन्नस निकाल रहे हैं. बात बात पर इनके "अहम्" टकरा रहे हैं और लंबित हो रहे हैं सरकार के कामकाज. अब जब अफसर ही इस तरह की हरकत पर उतारू हों तो बाबुओं को कौन सम्हालेगा? रोज़ किसी न किसी बात पर मंत्रालय में   चिल्ला- चोट हो ही रही है. कोई भी विभाग शान्ति से अपना काम नहीं कर पा रहा. वरिष्ठ अफसर कहते हैं की काम का बोझ अधिक होने के कारण ऐसी हालत होना एक सामान्य प्रक्रिया है. शायद यही कारण हैं की सारे काम वहीँ अटक जा रहे हैं शिकायतें पहुँच रही हैं संगठन तक.
हाल ही में महासमुंद से संगठन ने अपने स्तर पर कार्यकर्ताओं की बैठक का आगाज़ किया. संगठन कुल मिलाकर कार्यकर्ताओं में जोश फूंकने और चुनाव के लिए अपनी तैयारियों को अंजाम देने गाँव -गाँव का दौरा कर रहा है. इस दौरे के बीच लगभग हर जगह संगठन मंत्री सौदान सिंह को सरकार के बारे में विपरीत कमेन्ट ही मिले. कार्यकर्ताओं ने एक सुर से एक ही बात आलापी की किसी भी
कार्यकर्ता की किसी सिफारिश पर कोई फाइल आगे नहीं बढ़ रही. कुछ कार्यकर्ता यह कहने से भी नहीं चुके की जब यहाँ के अफसर हमारे मंत्री और सांसदों की सिफारिश कचरे के डिब्बे में दाल देते हैं तो कार्यकर्ताओं की कौन सुनेगा. संगठन ने इन बातों को गंभीरता से लिया और संगठन मंत्री ने मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को भी इस बारे में आगाह कर दिया है. संगठन ने स्पष्ट रूप से कहा है की अफसरशाही पर लगाम ज़रूरी है.

10 March 2012

नरेन्द्र...... तुम्हे सलाम....... दुनिया जैसी चल रही है वैसे ही चलो या मरने को तैयार रहो...


बात सिर्फ मध्यप्रदेश की नहीं पूरे देश की है. हर जगह भ्रष्ट लोग अपना कब्ज़ा जमाकर बैठ गए हैं . हर जगह भ्रष्टाचार. बात बात पर पैसा. जिसके पास पैसा ही उसे छूट है हर अपराध करने की. एक तो पैसे की गर्मी ऊपर से नेताओं का संरक्षण. मध्य प्रदेश के जांबाज़ अफसर नरेंद्र ने जो कुछ किया वह एक इतिहास तो बना गए पर उस बच्चे का क्या कसूर जो उनकी आई. ए. एस. पत्नी की कोख में पल रहा है. अभी तो वह इस दुनिया में आया ही नहीं है. इसी भ्रष्ट समाज में वह अपनी आँखें खोलेगा और जब वह दुनिया के बारे में जानना शुरू करेगा तो कौन बताएगा इस कड़वे सत्य के बारे में. कैसे जियेगा वह अपनी माँ के साथ. बड़ा होकर क्या करेगा.? सरकार कल इसे एक दुर्घटना साबित तो कर लेगी लेकिन क्या अंतरात्मा से यह बात कोई स्वीकार पायेगा की चूक कहीं न कहीं व्यवस्था में है. ऐसे ही मामलों से "वाद" सर उठाता है, जिसके आगे आज भी नतमस्तक है सरकार. फिर घुमते रहो यह बोलते हुए की मुख्यधारा से जुड़ जाओ. नरेंद्र कुमार तो मुख्य धारा से जुडा था, फिर कैसे जान गंवानी पडी उसे.? कुल मिलाकर दुनिया जैसी चल रही है वैसे ही चलो या मरने को तैयार रहो, या फिर एक नया "वाद" तैयार करो और इसके पहले की कोई आपको निपटाने की सोचे खुद निपटा दो उसे.
सवाल सिर्फ एक जान का नहीं है कौड़ी के मोल होती जा रही जान की कीमत का है. सरकार में बैठे लोग अमृत पीकर तो नहीं आये हैं न? किसी की जान का सौदा करने के पहले उन्हें अपने परिवार पर भी एक नज़र डाल लेनी चाहिए. नक्सली वारदातों में सैकड़ों पुलिस अधिकारी मारे गए. आज उनकी खैरियत पूछने वाला कोई नहीं है. केंद्र और राज्य सरकार के प्रतिनिधि आते हैं और मगरमच्छ के आंसूं बहाकर चले जाते हैं. पुलिस की नौकरी करना क्या अपराध है? वर्दी पहनाकर नंगा करना कहाँ का नियम है.? जितनी पढाई वह वर्दी पहनने के लिए करते हैं उतना कुछ राजनीति में आने के लिए नहीं करना पड़ता. सारी इंटेलीजेंसी घुस जाती है जब राजनीतिज्ञों के इशारों पर कुचल दिए जाते हैं पुलिस के जवान या अधिकारी. आज नरेंद्र चला गया कल कोई और सूली चढ़ जायेगा. सरकार का कुछ नहीं जाता . जाता है सिर्फ परिवार का.
मन सिहर जाता जाता है यह सोचकर की नरेन्द्र की धर्मपत्नी ने ही उन्हें मुखाग्नि दी. उनके पेट में पल रहे नन्हे मेहमान ने क्या अपनी माँ के पेट में लात नहीं चलाई चलाई होगी? क्या गुजर रही होगी उस महान औरत पर जो सारी बातें जानती थी, खुद हौसला अफजाई करती रही अपने आई पी एस पति की. अंजाम इतना गंदा होगा शायद इस दंपत्ति ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा. अवैध खनन हर प्रदेश में हो रहा है, कारवाई न होना खुद साबित कर देता है की मामला मिली जुली सरकार का है. आज चिंतन की सख्त ज़रुरत है. अगर आज भी हम सचेत नहीं हुए तो देश में बढ़ रहा गुस्सा पता नहीं किस मुकाम पर जाकर ख़त्म होगा. नेताओं को सरे आम पीटने लगेगी जनता.. ..इनको बचाने जो आएगा वह भी शिकार होगा जनता के इस महा अभियान का. एक "वाद" से तो सरकार निपट नहीं पा रही है अगर कोई दूसरा वाद अस्तित्व में आ गया तो क्या होगा नेतागिरी की आड़ में भ्रष्ट होती जा रही व्यवस्था का. चिंतन मनन आवश्यक है. आइये सब मिलकर सोचें और हल निकालें एक सद चरित्र समाज का.