25 January 2011

पत्रकार की हत्या और पत्रकारों की राजनीति

 
 

क्या ये बात सच है  कि जैसा राजा होता है प्रजा भी वैसी ही होती चली जाती है. एक पत्रकार की हत्या ने फिर ये सवाल खड़ा कर दिया है. छुरा के पत्रकार उमेश राजपूत की हत्या ने एक और सवाल दागा है कि पत्रकारिता क्यों और किसके लिए? छुरा कि राजधानी से दूरी मात्र अस्सी  किलोमीटर है. जब मैं अपने वरिष्ठ पत्रकार साथी नारायण शर्मा और साथी संदीप पुराणिक  के साथ कल सुबह सात बजे निकले तो रास्ते भर  हम यही मनाते रहे कि किसी भी हालत में हमें अन्येष्टि का भागीदार बनना ही है.  ऐसे शहीद पत्रकार को कांधा देना हम अपनी खुशनसीबी समझ रहे थे.
जब हम छुरा पहुंचे तो छुरा पूरी तरह से बंद था. दो तीन लोगों से पूछताछ की तो पता चला कि उमेश का शव पोस्टमार्टम के बाद उसके गाँव रवाना कर दिया गया है.  छुरा से १२ किलोमीटर खरखरा से मुड़कर हम १४ किलोमीटर और आगे उमेश के गृहग्राम  हीराबतर  पहुंचे तो घर से शवयात्रा बाहर निकाली जा रही थी. घर में कोहराम मचा हुआ था. हम तो किसी को जानते भी नहीं थे. भीड़ में सोचा रायपुर से और कोई नहीं तो कम से कम नई दुनिया से तो आया ही होगा. थोड़ी ही देर में गरियाबंद , मैनपुर , देवभोग और आसपास के कुछ परिचित चेहरे दिखने लगे. उमेश के शव को कन्धा देकर दूर जंगल तक हम गाँव वालों के साथ रहे. जंगल में एक तालाब के समीप चार कच्ची लकड़ियों के सहारे पक्की और जलाऊ लकड़ियों का चबूतरा बनाकर अर्थी रखी गयी. हम सारे पत्रकार साथी उन लोगों की मदद करते रहे. डेढ़ घंटे बाद सब वापस उमेश के घर लौटे. पत्रकारों ने  वहीँ मीटिंग कर आगे की रणनीति तय की. सारे साथी छुरा थाने पहुंचे और गरियाबंद के पुलिस अधीक्षक कमल लोचन कश्यप  को सूचना दी गयी.  जब एस. पी. को आने देरी हुई तो छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष  नारायण शर्मा के नेतृत्व में हमने थाने में ही धरना और नारेबाजी शुरू कर दी. एस. पी. के आते ही पत्रकार टूट पड़े उन पर. सबने तीन सूत्रीय मांग उन्हें सुनाई. काफी ना नुकुर के बाद छुरा के थानेदार को उन्होंने लाइन अटैच कर दिया और आरोपियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार कर लेने की  बात कही. संदिग्ध महिला सरोज मिश्र और एक चिकित्सक को थाने में हिरासत  में रखे होने की जानकारी भी दी गयी.  यहाँ से साथी नारायण शर्मा और संदीप पुराणिक वापस आ गये और मुझे कुछ जिम्मेदारियां देकर गरियाबंद रवाना कर दिया.
आज दोपहर जब मैं रायपुर पहुंचा और अखबारों के इस मामले में कवरेज  देखा तो जान जल गयी. नई दुनिया ने छापा है कि स्थानीय संपादक रवि भोई, महाप्रबंधक  मनोज त्रिवेदी , प्रसार प्रबंधक केयूर तलाटे और प्रांतीय प्रमुख घनश्याम गुप्ता  भी अंत्येष्टि में शामिल हुए.  ये झूठ तो मैं पचा भी गया. दूसरा मामला जो मैं हजम नहीं कर पाया वो ये है कि नई दनिया ने मृतक उमेश को अंशकालिक पत्रकार बताया है. अब मुझे कोई बताएगा कि ये अंशकालिक और पूर्णकालिक क्या होता है. आज ही बताना ज़रूरी था कि उमेश अंशकालिक पत्रकार था. अपना रक्षा धन जमा करके बिना तनख्वाह के और अपनी जान हथेली पर रखकर पत्रकारिता करने वाले अंशकालिक?  कौन है पूर्णकालिक?  रवि भोई ? जो छत्तीसगढ़ के मुखिया की जी हुजूरी करता फिरता है. उन्ही से सीखा होगा ना कि अपने अधीनस्थ की अन्येष्टि में जाए बिना विज्ञप्ति जारी कर दो. अरे मेरे भाई अगर अन्येष्टि में नहीं गये तो क्या हुआ परिवार वालों को सांत्वना तो दे आते. और अगर सांत्वना भी दी तो विज्ञप्ति में लिखवाना  था कि नई दुनिया परिवार ने मृतक उमेश राजपूत के परिजनों से उसके गृह ग्राम जाकर भेंट की. ये सब भी अब मुझे ही बताना पड़ेगा. इधर प्रेस क्लब रायपुर का हाल देखिये . रोनी सी शकल लेकर बैठ गये अनिल पुसदकर और शोक सभा ले ली. चूँकि महासचिव ने भी इस्तीफ़ा दे दिया है इसीलिये मैं तो उन्हें अध्यक्ष मानता ही  नहीं. वो मानते हों तो एक आमसभा भी बुला लें. खैर..बाजु में बैठा लिया बिलासपुर के अपने भाई शशि कोन्हेर को.  भाई इसीलिये लिखा क्योंकि दोनों ने बेशर्मी से चार साल से चुनाव नहीं करवाए हैं. हो गयी शोकसभा . विज्ञप्ति भी जारी हो गयी. एक और पत्रकार संघ ने भी सब के नाम डालकर विज्ञप्ति जारी की. उनके अध्यक्ष को लिखना  पढना आता नहीं इसीलिये शंकर पाण्डेय  को भी साथ ले लिया है. अकेला चना  क्या भाड़ फोड़ेगा? अब  एक  नजर इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर भी डाल लें. इस घटनाक्रम पर पत्रकार की  हत्या के स्क्रोल से लेकर अंत्येष्टि तक सिर्फ जी २४ घंटे छत्तीसगढ़ ने नज़र रखी. बाकी चैनलों ने  तो पट्टी तक चलाना उचित नहीं समझा. इस पूरी खबर पर जी २४ के गरियाबंद संवाददाता फारुक मेमन और उनके कैमरा पर्सन  फर्हाज़ जमे रहे. बाद में सहारा ने भी कैमेरामेन  को वहां भेजा. आज न्यूज़ एक्स और पी-  ७  ने इस मामले को कवर किया है.. मैं नारायण शर्मा या अपनी बडाई नहीं कर रहा. जिसके ऊपर ज़िम्मेदारी है उसे तो आगे आना ही होगा लेकिन बाकी लोग क्या सरकार की  तरह राजधानी में ही बैठकर  सारी समस्याओं  का हल ढूंढ लेंगे. इस संजीदा मामले में पत्रकारों के लिए लड़ने वालों की  बात करने वालों की ये अदा मुझे कुछ जंची नहीं.  अब तो पत्रकरों को सोचना ही पड़ेगा कि हम आखिर पत्रकारिता में आये क्यों हैं? और किसके लिए कर रहे हैं पत्रकारिता ? मुझे जो चीज़ें  दिल से बुरी लगीं मैंने लिख दिया . आपको अगर ये सब अच्छा लगा तो प्लीज़......dont comment here ...

23 January 2011

एक और पत्रकार की हत्या..मीडिया और सरकार आमने सामने

छुरा गाँव के एक पत्रकार उमेश राजपूत की आज देसी कट्टे से गोली मारकर हत्या कर दी गयी. कुछ दिन पहले ही उमेश ने छुरा थाने में इस आशय की शिकायत दर्ज कराई थी की गाँव की एक महिला स्वास्थ्य अधिकारी ने एक खबर को लेकर उसे देख लेने की धमकी दी है. खबर ये थी की छुरा में आयोजित एक सरकारी स्वास्थ्य शिविर में गलत उपचार के कारण एक मरीज की जान पर बन आयी थी. उमेश ने अपने अखबार नयी दुनिया में इसे प्रमुखता से भेजा और खबर छपी भी. उस नेत्र सहायिका ने कुछ दिन बाद उमेश के खिलाफ छेड़छाड़ की शिकायत भी अपने बचाव के लिए दर्ज करा दी थी, नतीजा सबके सामने है. आज उमेश हमारे बीच नहीं है. मुझे अब लगने लगा है की सरकार पत्रकारों को उकसा रही है. एक महिला स्वास्थ्य अधिकारी की इतनी बखत हो गयी की वो सुपारी देने लगी. पूरे मामले की लीपा पोती शुरू हो गयी है. कल पुलिस बोलेगी की ये आपसी रंजिश का मामला था. शिविर वाली खबर से उसका कोई लेना देना नहीं है. कल सुबह मैं भी छुरा जा रहा हूँ. अब देखते हैं.

चोर-डकैतों के चंगुल में है "छोलिवुड"

विश्वसनीय छत्तीसगढ़ में ऐसे -ऐसे अविश्वसनीय प्रयोग हो रहे हैं कि समझ नहीं आ रहा है अपना माथा कहाँ जाकर टकराऊं.....आपको जानकार आश्चर्य होगा कि पचासों  फ़िल्में बना लेने का दावा करने वाले छोलिवुड के पास आज भी अच्छे स्क्रिप्ट राइटर नहीं हैं. स्क्रिप्ट राइटर वही है जो हिंदी फिल्मों को  देखकर उसे छत्तीसगढ़ी में टाइप कर दे. चलिए पहले उन फिल्मों पर नज़र डाल लीजिये जिन्हें देखकर छत्तीसगढ़ी फ़िल्में टाइप हुईं हैं.  सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फिल्म "मया" हिंदी फिल्म "स्वर्ग से सुन्दर " की कॉपी है. मनोज वर्मा की छत्तीसगढ़ी फिल्म " महूँ दीवाना तहूँ दीवानी "  हिंदी फिल्म " आदमी खिलौना है" पर आधारित है. सुन्दरानी फिल्म्स की  "हीरो नंबर ०१ " हिंदी फिल्म "स्वर्ग" देख कर  लिखी गयी है. सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फिल्म "टूरा रिक्शा वाला " भोजपुरी फिल्म " निरौआ रिक्शा वाला" का रि - मेक  है.  "टूरी नंबर ०१ " हिन्दी फिल्म " घर हो तो ऐसा " से पूरी तरह से प्रभावित है. इरा फिल्म की  छत्तीसगढ़ी फिल्म "बंधना" हिंदी फिल्म "बंधन" के कन्धों पर रखी गयी है.
अब फिल्मों के प्लाट की  बात छोड़ दें तो आजकल इन्ही फिल्मों के गाने भी चुरा लिए जा रहे हैं.  गायक से अचानक संगीतकार बन गये लोग तो छत्तीसगढ़ के पुराने गानों  को अपना बताकर धकियाये पड़े हैं. अब सवाल ये उठता है कि इन पर अंकुश कौन और क्यों लगाए. मूलतः छत्तीसगढ़ी फ़िल्में स्वान्तः सुखाय के लिए बनी और बनायी जा रही है. क्या कारण है कि फ़िल्में चलने का नाम नहीं ले रही हैं.एक दो फिल्मों को छोड़ दें तो बाकी को अपने निर्माण की लागत तक नहीं मिली है. ऐसे में क्यों और किसके बन रही हैं छत्तीसगढ़ी फ़िल्में? सरकार को अपनी पीठ थपथपाने और अपने ही लोगों को ठीक करने से फुर्सत नहीं है. तभी तो सब्सीडी पर सरकार ने आज तक विचार ही नहीं किया? मनोरंजन कर मुक्त करके आम मतदाताओं को लाभ पहुंचाकर निर्माताओं की कमर तोड़ने का काम ही किया है सरकार ने. मैं सब निर्माताओं कि तारीफ़ नहीं करा रहा. बाकी लोग तो पूरे तोड़ने लायक हैं. पर जो लोग सच में अच्छा काम कर रहे हैं. जिनकी फ़िल्में पचास दिन पूरे कर रही है है, जिसमें यहाँ की परम्पराएं सन्निहित हैं. ऐसी फिल्मों पर तो गौर करना ही चाहिए.  अब एक मजेदार और चौंकाने वाली बात जान लीजिये. टॉकीज़ वालों ने हद्द मचा कर रखी है. हिंदी फिल्मों के लिए टॉकीज़ का साप्ताहिक किराया पचास हज़ार है जबकि यही लोग छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए सत्तर हज़ार साप्ताहिक किराया वसूल रहे हैं. एक हफ्ते बाद ये लोग हिंदी फिल्म के लोगों से शेयर की  बात कर लेते हैं और छत्तीसगढ़ी फिल्म वालों से अपनी फिल्म उतार लेने को कह देते हैं.
  • अब इन फिल्म वालों के लिए लड़े तो लड़े कौन? आपस की लड़ाई से इन्हें फुर्सत मिले तो कुछ सोचें भी. संस्कृति  विभाग ने अपने कुछ ख़ास लोगों को रोटियां डाल दी हैं. बस वो गरियाते रहते हैं. कभी कभी दया भी आती है इन लोगों पर.. कुछ निर्माता तो अपनी ऐय्याशी के लिए भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों को माध्यम बनाये हुए हैं. अब कलाकारों और निर्माताओं को मिल बैठकर अपनी रणनीति तय करनी ही होगी.  नहीं तो चार बार झटका खा चुके छोलिवुड को बचने कोई नहीं आने वाला. छोटी टेप पर बड़े परदे की  फ़िल्में बन तो रही हैं पर यही हाल रहा तो सबको फिर छोटे परदे पर लौट जाना होगा.