23 January 2011

चोर-डकैतों के चंगुल में है "छोलिवुड"

विश्वसनीय छत्तीसगढ़ में ऐसे -ऐसे अविश्वसनीय प्रयोग हो रहे हैं कि समझ नहीं आ रहा है अपना माथा कहाँ जाकर टकराऊं.....आपको जानकार आश्चर्य होगा कि पचासों  फ़िल्में बना लेने का दावा करने वाले छोलिवुड के पास आज भी अच्छे स्क्रिप्ट राइटर नहीं हैं. स्क्रिप्ट राइटर वही है जो हिंदी फिल्मों को  देखकर उसे छत्तीसगढ़ी में टाइप कर दे. चलिए पहले उन फिल्मों पर नज़र डाल लीजिये जिन्हें देखकर छत्तीसगढ़ी फ़िल्में टाइप हुईं हैं.  सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फिल्म "मया" हिंदी फिल्म "स्वर्ग से सुन्दर " की कॉपी है. मनोज वर्मा की छत्तीसगढ़ी फिल्म " महूँ दीवाना तहूँ दीवानी "  हिंदी फिल्म " आदमी खिलौना है" पर आधारित है. सुन्दरानी फिल्म्स की  "हीरो नंबर ०१ " हिंदी फिल्म "स्वर्ग" देख कर  लिखी गयी है. सतीश जैन की छत्तीसगढ़ी फिल्म "टूरा रिक्शा वाला " भोजपुरी फिल्म " निरौआ रिक्शा वाला" का रि - मेक  है.  "टूरी नंबर ०१ " हिन्दी फिल्म " घर हो तो ऐसा " से पूरी तरह से प्रभावित है. इरा फिल्म की  छत्तीसगढ़ी फिल्म "बंधना" हिंदी फिल्म "बंधन" के कन्धों पर रखी गयी है.
अब फिल्मों के प्लाट की  बात छोड़ दें तो आजकल इन्ही फिल्मों के गाने भी चुरा लिए जा रहे हैं.  गायक से अचानक संगीतकार बन गये लोग तो छत्तीसगढ़ के पुराने गानों  को अपना बताकर धकियाये पड़े हैं. अब सवाल ये उठता है कि इन पर अंकुश कौन और क्यों लगाए. मूलतः छत्तीसगढ़ी फ़िल्में स्वान्तः सुखाय के लिए बनी और बनायी जा रही है. क्या कारण है कि फ़िल्में चलने का नाम नहीं ले रही हैं.एक दो फिल्मों को छोड़ दें तो बाकी को अपने निर्माण की लागत तक नहीं मिली है. ऐसे में क्यों और किसके बन रही हैं छत्तीसगढ़ी फ़िल्में? सरकार को अपनी पीठ थपथपाने और अपने ही लोगों को ठीक करने से फुर्सत नहीं है. तभी तो सब्सीडी पर सरकार ने आज तक विचार ही नहीं किया? मनोरंजन कर मुक्त करके आम मतदाताओं को लाभ पहुंचाकर निर्माताओं की कमर तोड़ने का काम ही किया है सरकार ने. मैं सब निर्माताओं कि तारीफ़ नहीं करा रहा. बाकी लोग तो पूरे तोड़ने लायक हैं. पर जो लोग सच में अच्छा काम कर रहे हैं. जिनकी फ़िल्में पचास दिन पूरे कर रही है है, जिसमें यहाँ की परम्पराएं सन्निहित हैं. ऐसी फिल्मों पर तो गौर करना ही चाहिए.  अब एक मजेदार और चौंकाने वाली बात जान लीजिये. टॉकीज़ वालों ने हद्द मचा कर रखी है. हिंदी फिल्मों के लिए टॉकीज़ का साप्ताहिक किराया पचास हज़ार है जबकि यही लोग छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए सत्तर हज़ार साप्ताहिक किराया वसूल रहे हैं. एक हफ्ते बाद ये लोग हिंदी फिल्म के लोगों से शेयर की  बात कर लेते हैं और छत्तीसगढ़ी फिल्म वालों से अपनी फिल्म उतार लेने को कह देते हैं.
  • अब इन फिल्म वालों के लिए लड़े तो लड़े कौन? आपस की लड़ाई से इन्हें फुर्सत मिले तो कुछ सोचें भी. संस्कृति  विभाग ने अपने कुछ ख़ास लोगों को रोटियां डाल दी हैं. बस वो गरियाते रहते हैं. कभी कभी दया भी आती है इन लोगों पर.. कुछ निर्माता तो अपनी ऐय्याशी के लिए भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों को माध्यम बनाये हुए हैं. अब कलाकारों और निर्माताओं को मिल बैठकर अपनी रणनीति तय करनी ही होगी.  नहीं तो चार बार झटका खा चुके छोलिवुड को बचने कोई नहीं आने वाला. छोटी टेप पर बड़े परदे की  फ़िल्में बन तो रही हैं पर यही हाल रहा तो सबको फिर छोटे परदे पर लौट जाना होगा.

2 comments:

  1. नीयत साफ़ हो तो उपरवाला भी बरकत देता है।

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  2. अब इन फिल्म वालों के लिए लड़े तो लड़े कौन? tumne to itni khari khari kehker panga le liya hai....

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