![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqIf7w6vHCGWGuTbBKB5tud2DyhYPYhulGEAhFtFEnB0C7AmDxvDW8FnZwxaPc51HEkhIBYXDADMItaNxa50rRdz0IIdUDO0hyphenhyphenezpj1-mqu3dhSzQWK69_en2IUlctJQbUxSEyrs91Pz4/s200/ppl+1.jpg)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY5WM7_QY9OO0QRXq_NeqVWO-zWoMPZfNiny-dbZDgX4rog0Ovl8eJTpySo0udJNaHyd4OUmKJLjOl2o75tEUd89s8z7qn8PTc2j6eKBDEFEmAoMLt1SIJOxaL7c69vQv6Olznw_QzHDM/s200/ppl2.jpg)
ज़िंदगी के एक सिरे को पकड़ो तो दूसरा निकल जाता है. इसी कश्मकश में रचनात्मकता धरी की धरी रह जाती और समय पंख लगाकर उड़ता चला जाता है. कई साल बाद फिर ऐसा मौका आया जब फिल्म के नाम पर हम सारे पत्रकार दोस्त फिर जमा हुए और देख आये पीपली लाइव. सम सामयिक विषय पर एक गंभीर लेकिन हल्की फुल्की फिल्म. इस फिल्म को देखकर फिल्म बनाने वालों के सारे गणित फेल हो गये हैं. पीपली ने साबित कर दिया की फिल्म चलाने के लिए एक विषय वस्तु तो चाहिए ही. हिंदी फिल्मों की सी डी देखकर और स्पोट में लैपटॉप लगाकर फिल्म का frame चुराकर छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने वालों को एक बड़ी सीख देकर जायेगा पीपली. छत्तीसगढ़ के नत्था को पूरे देश ने अभी सर पर उठ लिया है.कल नत्था वापस अपने गाँव आ गया. रायपुर एअरपोर्ट से कल एक गाड़ी उसे सुपेला तक छोड़ आयी. माना विमानतल पर नत्था से बात करते समय मैं उसके मन् को पढने की कोशिश कर रहा था. उसके अन्दर भी एक भूचाल आया हुआ था की अब कल क्या होगा? मैंने उसे आश्वस्त किया है की अगर आगे कुछ बहुत अच्छा नहीं हुआ तो मैं तुम पर एक फिल्म बनाऊंगा और उसका नाम रखूँगा. पीपली डी लाइव . डी लाइव में लाइव नहीं होता. हम कैसेट में रिकॉर्ड कर उसे स्टूडियो लाकर लाइव जैसा ट्रीट करते हैं. नत्था को कांसेप्ट पसंद आ गया और वो थोड़ा नोर्मल दिखा . सामान्य चेहरे मोहरे वालों पर बॉलीवुड दो- तीन साल में एक ना एक फिल्म बनाता ही है. हमारा दुर्भाग्य है की हम छत्तीसगढ़ में रहते है लेकिन यहीं के लोगों की विशेषताओं से अपरिचित हैं. एक छत्तीसगढ़ी फिल्म "किस्मत " में नत्था को पीपली बनने के पहले एक छोटा सा रोल दिया गया था. लोगों को अब समझ आ रहा है की नत्था को बड़ा रोल भी दिया जा सकता था. दिल्ली -६ में "ससुराल गोंदा फूल" बजा तो हमें समझ आया की इसे तो अपन भी अपनी फिल्म में ले सकते हैं. अब बारी पीपली के "चोला माटी के राम" की हो रही है. कल जब "चना के दार राजा" भी कोई उठा लेगा तब हमें लगेगा, की अरे ये गाना तो हमारे यहाँ का था.
सवाल ये उठ रहा है की मीडिया आखिर कर क्या रहा है? कल मीडिया ने नत्था को highlight क्यों नहीं किया. आज वो क्यों उसके पीछे भाग रहा है. कल फिर सब जैसे थे वाली position में आ जायेंगे. पीपली में स्वर्गीय हबीब तनवीर की टीम के कई पुराने कलाकार भी दिखे. पुराने लोगों ने कई और हिंदी फिल्मों में भी काम किया है. रामचरण निर्मलकर ने bendit queen में दस्यु सुंदरी फूलन के पिता का रोल निभाया था. आज उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है. बीच में अपने पैरों की तकलीफ लेकर संस्कृति मंत्री के घर आये रामचरण को मैंने पहचाना था , और उन्हें अस्पताल ले जाकर admit कराया था. सरकार को भी कलाकारों का सुध लेने की फिक्र नहीं है. अब तो रोयल्टी के लिए भी लोग बिना कागजी हथियार के खड़े होने लगे हैं. छत्तीसगढ़ के गीतकार तो मीना कुमारी की गुम हुई डायरी की तरह हो गये हैं. छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों को अब अपनी दशा और दिशा बदलनी होगी. हिंदी फिल्मों की कॉपी करने की बजाय उन्हें छत्तीसगढ़ की अच्छाइयों को तलाशना होगा . मेहनत करनी होगी. एक पहल तो मैंने भी कर दी है. साल भर से एक ही विषय पर काम कर रहा था. अब जाकर एक निर्माता इस फिल्म के लिए राजी हो गया है. अब मुझे मौका मिला है कुछ कर दिखाने का. ऊपर वाले की मेहरबानी रही तो हम ब्लॉग पर सतत संपर्क में तो रहेंगे ही .
वर्तमान को जीते हुए, भूत ओर भविष्य पर एक साथ कम ही हैं जो नजर रख पाते हैं, बहुत खूब, लेकिन आपका यह नजरिया शायद बहुतों को परेशान करेगा.
ReplyDeleteमैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं। सुंदर आलेख। बधाई।
ReplyDeleteबहुत तकलीफ़ होती है, जब कलाकारों को एक दिन मीडिया सर चढा लेता है,जब वो गुमनामी के अंधेरे में चले जाते हैं, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं रहता।
ReplyDeleteएक बार मेरी मुलाकात बीमारी की हालत में हबीब तनवीर जी से एक अस्पताल में हूई थी। वे थैले में अपनी रिपोर्ट लिए डॉक्टर के पास अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे थे।
अच्छी पोस्ट
ये कौन सी बड़ी बात है मिडिया के लिए...
ReplyDeleteमिडिया का अर्थ है अमिताभ, शाहरुख़, और ऐश्वर्या ...बस
हमलोगों को सेलेब्रिटी पूजा की आदत हो गयी है...जिसे ऊँचा उठाते हैं उसे उठाने का कोई अंत नहीं होता और अगर बिसराते हैं तो उसका भी अंत नहीं होता...
किसी भी चीज़ का तब तक कोई अर्थ नहीं होता हमारे लिए जब तक कि वो हम तक किसी और के मार्फ़त न पहुंचे...हम अपनी धरोहरों को नहीं पहचान पाते हमें दूसरे बताते हैं, तभी हम जानते हैं...
आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं...
मेरी शुभकामनायें...
फिल्मवाले सिर्फ सुन्दर चेहरे को ही मुख्य पात्र क्यों बनाते हैं.. समझ नहीं आता.. सराहना करनी होगी आपकी.
ReplyDeleteबढिया आलेख
ReplyDeleteआभार
मैं परेशान हूँ--बोलो, बोलो, कौन है वो--
टर्निंग पॉइंट--ब्लाग4वार्ता पर आपकी पोस्ट
उपन्यास लेखन और केश कर्तन साथ-साथ-
मिलिए एक उपन्यासकार से
सुंदर आलेख।
ReplyDeleteसफलता प्रतिभा के चलते ही सही, लेकिन अचानक संयोग से बिना किसी लम्बी तैयारी के मिल जाए तो उसको ब्रांड की तरह टिकाउ बना पाना लगभग असंभव होता है. ओंकार दास की प्रतिभा पर संदेह नहीं है लेकिन उसकी सफलता का अधिकांश श्रेय निर्माता निर्देशक के खाते में ही चला जाता है. उसकी सफलता टिके रहने के लिए अवसर मिलते रहना जरूरी है, वरना संजीव जी की आशंका के सच होने में देर नहीं. छत्तीसगढ़ी कहावत है- 'फेर चराबो छेरी अउ बजाबो बाजा'
ReplyDeletejald hi naththa chhattisgarhi filmo me cash kiya jaane vaala hai...
ReplyDeleteसही कहा आपने....
ReplyDeleteऐसे कलाकारों को प्रकाश में लाने और फिर उनके भविष्य को सुनिश्चित करने का प्रयास करना ही चाहिए....