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16 July 2010
पुलिस वाला चोरहा अउ चोर हा पुलिस बने हे..
मैं बार बार कहता और लिखता रहा हूँ की छत्तीसगढ़ी दर्शकों को मूर्ख मत समझो. लेकिन लोग हैं की मेरी बात मानते ही नहीं. आज अपना भाग्य आजमाने एक और छत्तीसगढ़ी फिल्म " मया दे दे मयारू" रिलीज़ हो रही है. सबको इस फिल्म से उम्मीदें हैं. सतीश जैन की एक और फिल्म " टूरा रिक्शावाला " ने सफलता के नए झंडे गाड़ दिए हैं. अब प्रेम चंद्राकर की फिल्म "मया दे दे मयारू" को भी इससे ही कुछ उम्मीद है. इस फिल्म की कई खासियतें हैं. पहली ख़ास बात ये है की इस फिल्म में एक रियल पुलिस अधिकारी रील लाइफ में नज़र आएगा. अधिकारी भी कोई चना मुर्रा नहीं एक धाकड़ पुलिस वाला है. रायपुर शहर में गुंडे इस अधिकारी का नाम सुनते ही दुबक जाते थे. शशिमोहन नाम है इस अधिकारी का. ३० मार्च २०१० तक इस अधिकारी ने बीमारी के नाम से छुट्टी ली और कई नाटक और एक फिल्म में काम किया है. रायपुर से मुंबई जाकर रह रहे एक हिट कलाकार संजय बत्रा भी इस फिल्म में एक सटीक किरदार निभा रहे हैं. इस फिल्म के प्रचार के लिए सभी हथकंडे अपनाए गये हैं. अब देखना है की दर्शकों का कितना प्यार इस फिल्म को मिलेगा. इस फिल्म को हिट करने के लिए दिल्ली-६ में इस्तेमाल हो चुका एक " गाना सास गारी देवे " को ममता चंद्राकर ने आवाज़ दी है. ये दुर्भाग्य है की जब कोई हमारी संस्कृति को मुंबई में बैठकर झाँक लेता है तब हमें समझ आता है की अरे.. ये तो हमारा कल्चर था. छत्तीसगढ़ी मर्म को समझने वाले प्रेम चंद्राकर ने निःसंदेह अपनी खासियत इस फिल्म में भी बनाये रखी है. एक -दो नंबर के लिए संघर्ष कर रहे अनुज भी इस फिल्म में हीरो हैं. अपने हर किरदार में जान डालने की क्षमता रखने वाले पुष्पेन्द्र सिंह भी एक विलेन के रूप में इस फिल्म में अपनी छाप छोड़ेंगे. वाहन और ज़मीन से जुड़े अलक राय ने ये फिल्म produce की है. इस फिल्म को अभी देखा नहीं गया है लेकिन पुलिस के एक जवान को एक बात बिलकुल नागवार गुजरी है की उनके साहब ( कंठी ठेठवार ) फिल्म में न्याय मांगने के लिए डायलोग बाजी कर रहे हैं और एक मंत्री का भाई उसमें इंस्पेक्टर बना है. उसने पोस्टर देखा और समीक्षा कर दी की " पुलिस वाला चोरहा अउ चोर हा पुलिस बने हे. नई चलही पिक्चर ......" ऐसे सीधे और बेबाक हैं छत्तीसगढ़ के लोग. मुझे तो बैठे बैठाये heading मिल गयी. खैर ...फिल्म तो आज लग गयी है. सोमवार तक बॉक्स ऑफिस अपना पिटारा खोल देगा. लेकिन ये फिल्म चलनी चाहिए. एक पुलिस वाला जब रोल कर सकता है तो क्या एक मंत्री के भाई को अभिनय करने का अधिकार नहीं है. वो भी तो कलाकार है, अब निजी ज़िंदगी को रुपहले परदे पर तुलना करना गलत है. एक हफ्ते बाद पता चलेगा फिल्म चली या नहीं चली . चली तो किन विशेषताओं के कारण , और नहीं चली तो कौन से ऐसे कारण थे जिसे प्रेम चंद्राकर के सहायक निर्देशक समझ नहीं पाए. मेरी व्यक्तिगत शुभकामनाएं " मया दे दे मयारू" की पूरी टीम के साथ है.
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किसी फ़िल्म चलना एवं न चलना कई बातों पर नि्र्भर करता है।
ReplyDeleteमुख्य बात तो है कि दर्शकों को पसंद आनी चाहिए।
दे्खते हैं आगे क्या होता है।
chhatisgarh jindabaad !
ReplyDeleteDekhte hain film kaise hai..
बहुत बढिया!
ReplyDeleteशुभकामनाएँ तो हम भी दिये देते हैं.
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